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________________ 6 :: तत्त्वार्थसार सदा अन्तरंग में प्रकट रूप से प्रकाशमान है तो भी वह कषायचक्र के साथ एकरूप किए जाने से अपने सच्चे स्वरूप को पहचानता नहीं है और जो आत्मा के सच्चे स्वरूप को जानते हैं, उनकी संगति-सेवा नहीं करते । यह तो लोकप्रसिद्ध है कि डॉक्टर, मास्टर, वकील, इंजीनियर, व्यापारी, जौहरी आदि बनना हो तो यथाक्रम से योग्य पदवालों के नीचे रहकर संगति - अभ्यास करना होता है । उसी प्रकार यदि अध्यात्म को समझना है तो, जिन्होंने अध्यात्म जिया है, पिया है, जीवन में उतारा है, उनकी संगति करने से उस आत्मतत्त्व के गूढ़तम रहस्य समझ में आ सकते हैं । अन्यथा उस एकत्व - विभक्त आत्मा की कथा को न हमने कभी सुना - श्रद्धान किया, न कभी परिचय-ज्ञान किया, न कभी अनुभवरूप आचरण किया, क्योंकि जब एकत्व - विभक्त आत्मा की सुकथा सुनाने- बताने वाले सुलभ होते हैं तब उनसे जानने-सुनने वाले दुर्लभ होते हैं और जब जानने-सुननेवाले सुलभ होते हैं तब बताने-सुनानेवाले दुर्लभ होते हैं । अतः आत्मा की एकत्व - विभक्त सुकथा अत्यन्त दुर्लभ है।' इस आत्मा का अस्तित्व कब से है ? कैसा है ? कहाँ है ? कब तक है? इसके अस्तित्व का विकासक्रम क्या है ? इत्यादिक प्रश्न मन में जन्म अवश्य लेते हैं। इस जीव का अनादि निवासस्थान निगोद है। निगोद के दो भेद हैं- नित्यनिगोद और इतरनिगोद। जो जीव, नित्यनिगोद से निकलकर संसार की त्रसादि पर्यायों को पंच-परावर्तन रूप काल से व्यतीत करके पुनः निगोद में जाता है उसे इतरनिगोद कहते हैं । कौन थे ? क्या हो गये ? और क्या होंगे अभी ? आओ यहाँ सब बैठकर इस बात को सोचें सभी। के • नित्यनिगोद सातवें नरक के नीचे कलकल नामक पृथ्वी में है, जहाँ उनका निवासस्थान है। अनन्त स्कन्धों समूह में से एक स्कन्ध' में असंख्यात लोकप्रमाण 'अण्डर' होते हैं । उनमें से 'एक अण्डर' में असंख्यात लोकप्रमाण ‘आवास' होते हैं। उनमें से 'एक आवास' में असंख्यात लोकप्रमाण 'पुलवि' होती हैं। उनमें से 'एक पुलवि' में असंख्यात लोकप्रमाण 'निगोद शरीर' होते हैं। उनमें से 'एक निगोद शरीर में अनन्तानन्त निगोद जीवों का अवस्थान पाया जाता है । वहाँ पर एक निगोद शरीर के अनन्त जीवों का सामूहिक रूप से एक श्वास में अठारह बार जन्म-मरण होता है। इन्हीं नित्य निगोदिया जीवों में छह महीने, आठ समय में छह सौ आठ जीव निकलकर संसार की व्यवहार राशि में आते हैं एवं इतने ही समय में छह सौ आठ जीव संसार की व्यवहार राशि से निकलकर मोक्ष चले जाते हैं, जिससे संसारी जीवों की व्यवहार राशि बराबर बनी रहती है। यहाँ एक प्रश्न उठता है कि यह जीव, नित्य निगोद से निकलकर व्यवहार राशि में कैसे आता है ? इस प्रश्न का एक उत्तर, हमेशा विद्वानों द्वारा दिया जाता रहा है। जैसे कोई एक भड़भूँजा (चना फोड़ने वाला) जब भाड़ भूँजता है, तब कोई विरला चने का दाना भाड़ 'उचटकर भाड़ के बाहर आ जाता है, वैसे ही नित्यनिगोद से जीव व्यवहार राशि में निकलकर आ जाता है। इस दृष्टान्त में भाड़ से उचटकर बाहर निकलनेवाले चने की प्रवृत्ति का विश्लेषण करना अत्यन्त आवश्यक 1. स.सा.गा. 4 2. धव. पु. 14, 5-6 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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