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प्रस्तावना
आज तक हम सबने क्या-क्या नहीं सुना है! राजा-रानियों की कहानियाँ सुनी हैं, सेठ-सेठानियों की कहानियाँ सुनी हैं, पशु-पक्षियों की कहानियाँ सुनी हैं और भी न जाने कितनी, किन-किन की कहानियों को सुना है। तभी तो आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने अपने आध्यात्मिक ग्रन्थ 'समयसार' में कहा है
सुदपरिचिदाणुभूया सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा।
एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स।।4।। इस समस्त जीवलोक को कामभोग विषयक बन्ध की कथा, एकत्व के विरुद्ध होने से आत्मा का अत्यन्त अहित करनेवाली है, ऐसा जानते हुए भी इस जीव ने उस काम (स्पर्शन-रसना सम्बन्धी) तथा भोग (घ्राणचक्षु-कर्ण-सम्बन्धी) बन्ध की कुकथा को एवं चारों संज्ञाओं से संस्कारित चारों विकथाओं को अनादिकाल से एक बार नहीं, अनन्त बार बड़ी रुचि एवं लगन से सुना-श्रद्धान किया। इन्हीं विषयों की जिज्ञासा होने से इनका अनन्त बार परिचय-ज्ञान लिया। जैसा ज्ञान वैसा ही चारित्र के द्वारा अनुभव करने को ये जीव अनन्त बार पुरुषार्थ करने में लगे रहते हैं।
इसी कारण से समस्त संसारी प्राणी संसाररूपी चक्र के मध्य में स्थित द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप पंच परावर्तन रूप अनन्त संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं।
मोहरूपी महाबलवान पिशाच, जो इस समस्त लोक को अपने एक छत्र राज्य से अपने वश करके बैल की भाँति जोतकर कर्मरूपी भार को जीव के द्वारा जबर्दस्ती वहन करवाता है।
अत्यन्त वेगवान् तृष्णारूपी रोग की दाह से सन्तप्त होने पर जिसके अन्तरंग में क्षोभ और पीड़ा है ऐसा मृग, मृगमरीचिका के वशीभूत होकर मरुस्थल में भटकता है, उसी प्रकार यह जीव, मृगतृष्णा के समान श्रान्तसन्तप्त होकर पंचेन्द्रिय-विषयों की ओर तीव्रगति से दौड़ रहा है।
यदि कथंचित् कोई जीव, किसी कारण से संसार के विषयभोगों की कुकथा से चारुदत्त के समान अजानउदासीन भी होता है तो अन्य दूसरे विषयासक्त जीव, उसे पंचेन्द्रिय-विषयों की शिक्षा देकर अपना आचार्यत्व प्रकट करते हैं, एक-दूसरे को सिखाते हैं, समझाते हैं, प्रेरणा देते हैं, इसलिए काम-भोग सम्बन्धी बन्ध की कथा सभी भोगाभिलाषियों के लिए अत्यन्त सुलभ है।
आज के भौतिकता के समय में भी प्रत्यक्ष-अनुभव में आ रहा है कि काम-विकारों को बढ़ाने वाले भौतिक सुख-साधन घर-घर में कितने सुलभ हैं ! सुबह से अखबार, टी.वी., नेट, मैग्ज़ीन आदि से जीवनचर्या प्रारम्भ होकर रात्रि में विश्राम तक इन्हीं का अवलम्बन लिए हुए है।
परन्तु अपने ही निर्मल भेद-विज्ञानरूपी ज्योति से स्पष्ट दिखाई देनेवाली एकत्व-विभक्त आत्मा, यद्यपि
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