________________
मतिज्ञान के कारण
इन्द्रियानिन्द्रियेभ्यश्च मतिज्ञानं प्रवर्तते ॥ 20 ॥
अर्थ - मतिज्ञान मात्र इन्द्रिय और मन द्वारा उत्पन्न होता है। मन रहित भी कई प्रकार के जीव होते हैं। उनका मतिज्ञान, अकेला किसी एक-एक इन्द्रिय द्वारा ही उत्पन्न होता है। जिन जीवों में मन होता है उनका मतिज्ञान अकेले मन द्वारा भी होता है और बाह्य विषयों का ज्ञान मन की सहायता मिलने पर किसी एक इन्द्रिय द्वारा भी होता है ।
मतिज्ञान के भेद व विषय
अवग्रहः ततस्त्वीहा ततोऽवायोऽथ धारणा । बहोर्बहुविधस्यापि क्षिप्रस्यानिःसृतस्य च ॥21॥ अनुक्तस्य 'ध्रुवस्यातः सेतराणां तु ते मताः । व्यक्तस्यार्थस्य विज्ञेयाश्चत्वारोऽवग्रहादयः ॥ 22 ॥ व्यञ्जनस्य तु नेहाद्या एक एव ह्यवग्रहः । अप्राप्यकारिणी चक्षुर्मनसी परिवर्ज्य सः ॥ 23 ॥ चतुर्भिरिन्द्रियैरन्यैः क्रियते प्राप्यकारिभिः ।
प्रथम अधिकार :: 13
अर्थ- किसी एक विषय का प्रथम ही विशेष ज्ञान नहीं हो सकता । जिस प्रथम समय में मनुष्य का किसी एक वस्तु की तरफ लक्ष्य जाता है उस समय एक साधारण परिणाम उत्पन्न होता है । उस परिणाम को दर्शन कहा है। दूसरे लोग इसे निर्विकल्प ज्ञान' भी कहते हैं । विशेष, आकृति या विकल्प शब्द का एक ही अर्थ है । विशेषण भी इसी को कह सकते हैं । विशेषण या विशेष आकृति से जो उलटा स्वभाव हो उसे साधारण, निर्विशेष, सामान्य - इत्यादि नामों से सम्बोधते हैं। प्रथम समय में होनेवाला पदार्थ का दर्शन केवल साधारण स्वरूप को पकड़ता है, इसलिए उसे निर्विकल्प ज्ञान कहना भी युक्तिसंगत है, परन्तु जैन सिद्धान्त में ऐसा माना है कि पदार्थ का विशेष आकार जब तक भास न हुआ हो तब तक ज्ञान की उत्पत्ति नहीं समझनी चाहिए। जिस चेतन में विशेष आकार कुछ भी भासने लगा हो वही ज्ञान कहलाता है, इसीलिए ज्ञान को साकार माना गया है और दर्शन को निराकार। जिसका आकार कहा व ठहराया न जा सके वह सामान्य होता है। सामान्य का विषय करनेवाला चैतन्य भी इसीलिए निराकार होता है। यही दर्शन व ज्ञान में परस्पर अन्तर है ।
दर्शन हो जाने पर दूसरा समय लगते ही चेतना में थोड़ा-सा विशेषाकार भासने लगता है। बस, यही प्रथम होनेवाला ज्ञान है। जैन सिद्धान्तों में इस प्रथम ज्ञान को अवग्रह कहा है। विशेषता के उत्तरोत्तर
Jain Educationa International
1. ध्रुवस्येति इति पाठान्तरम् । 2. 'ज्ञान' शब्द का अर्थ चैतन्य भी हो सकता है और इस अर्थ के अनुसार ज्ञान के साथ निर्विकल्प विशेषण लगाने से सामान्यार्थप्रतिभासक दर्शन ऐसा अर्थ होना सम्भव है । परन्तु, जैन ग्रन्थों में दर्शन के लिए 'ज्ञान' शब्द का उपयोग किया नहीं जाता।
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org