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________________ 12 :: तत्त्वार्थसार करेगा?' तीसरा जो व्यवसाय या निश्चय विशेषण दिया है, वह इसलिए कि संशयादि ज्ञान, सम्यग्ज्ञान न कहलाने लगें। मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय व केवल ये इस सम्यग्ज्ञान के पाँच भेद हैं। स्वसंवेदनमक्षोत्थं विज्ञानं स्मरणं तथा। प्रत्यभिज्ञानमूहश्च स्वार्थानुमितिरेव वा॥19॥ बुद्धिर्मेधादयो याश्च मतिज्ञानभिदा हि ताः। अर्थ-स्वसंवेदन अर्थात् सुखादि अन्तरंग विषयों का ज्ञान। इन्द्रियज्ञान अर्थात् इन्द्रियजन्य बाह्य विषयों का ज्ञान। स्मरण यानी पहले अनुभूत विषयों का याद होना। उपस्थित किसी एक विषय का इन्द्रियजन्य ज्ञान व पूर्वानुभूत किसी विषय का स्मरण हो जाने पर उस उपस्थित और उस स्मरण के विषय में परस्पर मेल बैठानेवाला जो तृतीय ज्ञान होता है, वह प्रत्यभिज्ञान है। अनुमानोपयोगी साध्यहेतुओं का परस्पर अखंडनीय सम्बन्ध दिखानेवाले ज्ञान को ऊह या तर्क कहते हैं। तर्कज्ञान हो जाने पर साधन दिखते ही साध्यज्ञान का होना स्वार्थानुमान है। ये सब मतिज्ञान के प्रकार हैं। ___ व्यवहार प्रत्यक्ष मन से होता है और बाह्य इन्द्रियों द्वारा भी । मानसिक प्रत्यक्ष को स्वसंवेदन कहते हैं और बाह्येन्द्रियजन्य को विषयप्रत्यक्ष या बाह्यप्रत्यक्ष। जैनशास्त्रों में इन्हीं दोनों ज्ञानों को अनुभव भी कहते हैं। इसके होने पर यदि संस्कार उत्पन्न हो जाए तो कालान्तर में निमित्त मिलने पर उसका स्मरण होता है। प्रत्यभिज्ञान, तर्क व अनुमान ये तीनों ज्ञान भी पूर्वोल्लिखित ज्ञान होने पर हो सकते हैं, इसीलिए अनुभवादि अनुमान पर्यन्त के ज्ञानों में पहले के कारण व उत्तर के कार्यरूप माने गये हैं। अनुभव मूलज्ञान है, इसलिए उसके पूर्व में कारण-ज्ञान की आवश्यकता नहीं पड़ती और वह व्यवहार में प्रत्यक्ष भी कहा जाता है। परन्तु स्मरण आदि अनुमान पर्यन्त चारों ही ज्ञान पूर्व-पूर्वज्ञानजनित होते हैं, इसलिए वे सब केवल परोक्ष ही माने जाते हैं। अनुमान, एक तो स्वयं साधन दिखने पर साध्यज्ञान होना, दूसरा, किसी का हेतु तर्कवाक्य सुनने पर होना, ऐसे दो प्रकार का है। पहले को मतिज्ञान के भेदों में माना है और दूसरे को श्रुतज्ञान में गर्भित किया है। जिस प्रकार अनुभव-स्मरणादि मतिज्ञान के उत्तर भेद हैं, उसी प्रकार बुद्धि, मेधा, प्रतिभा, प्रज्ञाइत्यादि नाम भी मतिज्ञान के ही भेदवाचक हैं। अनुभवादि जो भेद हैं वे पूर्वोत्तर कालवर्ती होने से, व कार्यकारणरूप होने से माने गये हैं परन्तु बुद्धि-मेधादिक भेद इस प्रकार के नहीं हैं। ये भेद कहीं तो तरतम भाव की अपेक्षा से हैं और कहीं उत्पादक सामग्री भेद की अपेक्षा से हैं और कहीं उक्त दोनों की अपेक्षा माने गये हैं, किन्तु विषय सबके अलग-अलग रहते हैं। इसीलिए बुद्धि-मेधादिकों में परस्पर कालक्रम का तथा कार्यकारणपने का कोई नियम नहीं जुड़ता है। यह अनुभव-स्मरणादि और बुद्धि मेधादिकों में परस्पर का अन्तर है। अनुभव-स्मरणादिकों में विषय प्रथमानुभव किया हुआ ही रहता है और आगे जो अवग्रह आदि भेद कहेंगे उनमें भी विषय एक ही रहता है। केवल जानने में तरतमता व दृढ़ता बढ़ती जाती है। 1. को वा तत्प्रतिभासिनमर्थमध्यक्षमिच्छंस्तदेव तथा नेच्छेत? (प.मु., सूत्र 11)। स्वावभासनाशक्तस्य परावभासकत्वायोगात्। न्या. दी., प्र. प्रका., वृ.13 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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