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________________ 312 :: तत्त्वार्थसार न कोई समय रहता है और छूटने का भी समय नियत रहता है, फिर भी कोई न कोई कर्म जीव के साथ अवश्य बना रहता है। संसारी जीवों में ऐसी अवस्था अनादि से हो रही है। कर्मों का सम्बन्ध होना किसी नियत काल से ठहरा हुआ नहीं है। इसी से सम्बन्ध को अनादि कहना पड़ता है। इस कहने से यह सिद्ध होता है कि एक कर्म अनादि काल से जीव के साथ लगा हो यह बात नहीं है, इसलिए एकएक सम्बन्ध की अवधि है। तो जिस प्रकार उत्पत्ति की अवधि हो सकती है उसी प्रकार उसके नाश की भी अवधि हो सकती है। उस एक अन्तिम कर्म का नाश होते समय यदि नवीन कर्म का बन्धन न होने दिया जाए तो कर्म का सम्बन्ध निर्मूल नष्ट हो सकता है। तात्पर्य यह सिद्ध हुआ कि जुदी-जुदी चीजों का सम्बन्ध अनादि काल से हो तब भी वह नष्ट हो सकता है। इसके लिए उदाहरण भी मिलते हैं। बीजवृक्ष का सम्बन्ध अनादि काल का मानना पड़ता है। कोई भी बीज बिना अपने पूर्व के वृक्ष के नहीं पैदा हो सकता है। बीज का उत्पादन करना पूर्ववृक्ष को भी कह सकते हैं और पर्व बीज को भी कह सकते हैं। इस प्रकार का उत्पादन होता ही है तो बीजवृक्ष की अथवा बीज-बीज की सन्तति अनादि हो जाती है। सन्तति अनादि होने पर भी उस सन्तति के अन्तिम बीज को यदि पीस-कूटकर अथवा जला, गलाकर नष्ट कर दिया जाए तो आगे के लिए वह सन्तति नष्ट हो जाती है। इसी प्रकार नाश के प्रयोगों द्वारा पूर्वार्जित कर्मों में अन्तिम रहे हुए कर्म का नाश कर दिया जाए तो फिर सन्तति निःशेष नष्ट हो सकती है। पूर्वार्जित कर्म के नाश का और नवीन कर्म की उत्पत्ति न होने देने का उपाय पहले संवर, निर्जरा के प्रकरण में लिख चुके हैं। कर्म का सम्बन्ध जीव से छूट नहीं सकता-ऐसी जो शंका थी वह इस उत्तर से दूर हो जाती है। किसी विरले जीव की संसार श्रृंखला भी निर्मूल नष्ट हो जाती है। न तो विकारी श्रृंखलाओं में अनन्तता का नियम है और न विकारी पर्यायों में अनन्तता का नियम हो सकता है। इसलिए जीव के कर्म बन्धन का सम्बन्ध भी छूट सकता है और उन कर्मों के कर्मत्व पर्याय भी नष्ट भी हो सकते हैं। कर्म के नाश से संसार का नाश कैसे है? दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः। कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुरः॥7॥ अर्थ-जैसे बीज पूरा जल जाने पर अंकुर उत्पन्न नहीं होता, वैसे ही कर्मबीज जल जाने पर संसाररूप अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकता है। जब कारण का ही नाश हो गया तो कार्य किस प्रकार हो सकता है? भव की उत्पत्ति का कारण कर्म है। उस कर्म का नाश होने पर भव की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? मनुष्यादि योनियों में मरना, उत्पन्न होना इसका नाम भव है। इस भव का कर्मबन्धन के साथ कार्यकारण भाव सम्बन्ध है। जीव की स्वाभाविक दशा कुछ और रहती है और कर्म के सहभाव से कुछ और प्रकार की होती है। उसके विकार का कारण कर्म है, इसलिए कर्म के अभाव में भी जीव का परिणमन होना तो बन्द नहीं पड़ सकता है, परन्तु विकार मात्र का अभाव हो जाता है। स्वाभाविक दशा का स्वरूप Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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