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________________ आठवाँ अधिकार :: 311 होने में कोई विलम्ब नहीं लगता है। वह स्वरूप प्राप्त हो जाना ही जीव का मोक्ष है। वह मोक्ष संवर पूर्वक नि:शेष निर्जरा करनेवाले को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है। मोक्ष में गुणों का अभाव-सद्भाव तथौपशमिकादीनां भव्यत्वस्य च संक्षयात्। मोक्षः सिद्धत्वसम्यक्त्व ज्ञानदर्शनशालिनः॥5॥ अर्थ-कर्मों की तरह और कर्मों के कार्यभूत शरीरादिकों की तरह औपशमिकादि भावों का तथा भव्यत्व का भी क्षय हो जाने पर मोक्ष प्रकट होता है। उस मोक्ष अवस्था में सिद्धत्व, सम्यग्दर्शन, केवलज्ञान तथा केवलदर्शन-ये सर्वथा शुद्ध स्वभाव शेष रह जाते हैं। यदि कुछ भी शेष न रहे तो मोक्ष के समय आत्मा की सत्ता किस प्रकार सिद्ध हो सकेगी? आत्मा का यदि नाश ही होना मान लिया जाए तो मोक्षप्राप्ति का प्रयत्न करना निरर्थक हो जाता है, इसलिए विकारीभावों के नाश होने पर भी ज्ञानादि शुद्ध भावों का वहाँ पर सद्भाव है। अनादि कर्म के नष्ट होने में युक्ति आद्यभावान्नभावस्य कर्मबन्धनसन्ततेः। अन्ताभावः प्रसज्येत दृष्टत्वादन्त्यबीजवत्॥6॥ अर्थ-जिस वस्तु की उत्पत्ति का आद्य समय नहीं होता उसको अनादि कहते हैं। जो भाव अनादि होता है उसका अन्त भी कभी नहीं होता। यदि अनादि का अन्त हो जाए तो सत् का विनाश होना मानना पड़ेगा, परन्तु सत् का विनाश होना सिद्धान्त से भी विरुद्ध है और युक्ति से भी विरुद्ध है। सिद्धान्त में द्रव्यमात्र को नित्य कहा है। अकारणक कार्योत्पत्ति न होना यहाँ पर युक्ति है। यदि अकारणक कार्योत्पत्ति हो सकती हो तो अंकुरोत्पत्ति के लिए बीज की अपेक्षा किसी को भी न हो। इस न्याय के आधार पर इस प्रकरण में यह शंका होती है कि अनादि कर्मबन्धन सन्तति का भी नाश कैसे हो सकता है ? अर्थात् कर्मबन्धन का कोई आद्य समय नियत नहीं है, इसलिए कर्मबन्धन अनादि है। जबकि वह अनादि है तो उसका अन्त भी न होना चाहिए। जैसा अनादि से चला आ रहा है वैसा ही अनन्त काल तक जीव के साथ सदा बना रहना चाहिए। इसका फल यह होगा कि जीव मुक्त कभी न हो सकेगा। इस शंका के दो रूप हो जाते हैं। एक तो यह कि जीव से कर्म का सम्बन्ध कभी छूटना न चाहिए। दूसरा यह कि कर्मत्व रूप जिन पुद्गलों में हैं उनमें ही सदा बना रहना चाहिए। क्योंकि, कर्मत्व एक जाति है। वह सामान्य होने से ध्रुव होनी चाहिए। फिर चाहे उसके पर्याय कितने ही बदलते रहें, परन्तु वे सब पर्याय कर्मरूप रहेंगे। जैनसिद्धान्त में जो द्रव्य जिस स्वभाव का होता है वह उसी स्वभाव का सदा बना रहता है। जीव अपने चैतन्य स्वभाव को कभी नहीं छोड़ता है, तो कर्मद्रव्य अपने कर्मत्व को कैसे छोड़ सकता है? उत्तर-कर्म का सम्बन्ध यद्यपि अनादि है, परन्तु वह अनादि सम्बन्ध किसी कर्म विशेष का नहीं है, किन्तु एक-एक कर्म कुछ अवधिपर्यन्त ही रहता है। उस एक-एक कर्म की उत्पत्ति का भी कोई Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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