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________________ प्रस्तावना ::35 एक दिन भट्टारक स्वामी जी ने हमसे कहा कि-महाराजश्री, आपके पास जो तत्त्वों का मौलिक चिन्तन है वह जन-साधारण से लेकर विद्वान, त्यागी-व्रती, एवं साधुजनों तक पहुँचना चाहिए। अभी तक हमने विद्वानों की टीकाओं का स्वाध्याय किया है, परन्तु अब हम आप जैसे मनीषी साधुओं की चिन्तनपूर्ण टीकाओं का स्वाध्याय करना चाहते हैं। ___ हमने स्वामी जी से कहा कि हम इन टीका कार्यों के लिए असमर्थ हैं, लेकिन स्वामी जी ने हमें प्रोत्साहन दिया कि आप इस कार्य को कर सकते हैं एवं इस कार्य के लिए जो भी आपको सहायता चाहिए श्रवणबेलगोल क्षेत्र ट्रस्ट की ओर से हम करेंगे। भट्टारक स्वामी जी के प्रोत्साहन एवं उनके उदात्त विचारों ने हमें सम्बल दिया, जो इस कार्य को करने का प्रेरणास्रोत बना। इस कार्य के लिए कर्मयोगी चारुकीर्ति भट्टारक जी अनन्त आशीर्वाद के पात्र हैं। श्रवणबेलगोल क्षेत्र के वर्षायोग के बाद स्वामी जी की प्रेरणा से संघ तमिलनाडु की यात्रा करता हुआ, सन् 2007 में धर्मस्थल (द.क.) के महामस्तकाभिषेक में सम्मिलित हुआ। संघ ने 2007 का वर्षायोग फलटन (महा.) में किया। वहाँ पर सन् 1919 की एक जीर्ण-शीर्ण तत्त्वार्थसार की प्रति प्राप्त हुई। हमने पहली बार ही तत्त्वार्थसार को पढ़ा, तब विचार आया कि हिन्दी टीका के सम्पादन कार्य का आरम्भ क्यों न अमृतचन्द्राचार्य की इस तत्त्वार्थसार कृति से किया जाए, क्योंकि अद्यावधि तत्त्वार्थसार की मौलिक चिन्तनपूर्ण हिन्दी टीका का सम्पादन नहीं हुआ। अतः हमने इस ग्रन्थ की कम्पोंजिग वर्षायोग में ही करवाकर सामान्य करेक्शन करके रख ली कि अवसर मिलने पर इसे प्रकाशित करवा लेंगे। वास्ट जैन फाउण्डेशन कानपुर (उ.प्र.) के सभी सदस्य संघ-सेवा में सक्रिय योगदान करते हैं। त्रिभुवन जी ने जब टीका को देखा तो कहने लगे इसे भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली जैसे महत्त्वपूर्ण संस्थान से प्रकाशित करवाना चाहिए। हमने कहा-यह जवाबदारी आपकी है। त्रिभुवन जी ने इसकी प्रति ले जाकर भारतीय ज्ञानपीठ के मैनेजिंग ट्रस्टी श्री साहू अखिलेश जैन को दिखायी। ज्ञानपीठ के मुख्य प्रकाशन अधिकारी डॉ. गुलाबचन्द्र जैन ने भी इसके प्रकाशन की संस्तुति करते हुए कहा कि भारतीय ज्ञानपीठ से तत्त्वार्थसूत्र पर सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक एवं तत्त्वार्थवृत्ति जैसी हिन्दी टीकाएँ तो प्रकाशित हो चुकी हैं, लेकिन तत्त्वार्थसार की यह महत्त्वपूर्ण हिन्दी टीका अभी तक हमारे प्रकाशन से दूर है। परामर्श के बाद साहू अखिलेश जी ने इसके प्रकाशन के लिए अपनी स्वीकृति दे दी। इसके लिए साहू अखिलेश जी एवं डॉ. गुलाबचन्द्र जी, दोनों ही अनुग्रहाशीष के पात्र हैं। हमने जो तत्त्वार्थसार की हिन्दी-टीका की प्रति तैयार की थी, वह कई करेक्शन एवं कुछ भाषा सम्बन्धी अशुद्धियों से सहित थी जिसकी शुद्धि की जिम्मेदारी डॉ. वीरसागर जैन, अध्यक्ष जैन दर्शन विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री, राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली को सौपी गयी। उन्होंने कुछ सुझाव सहित इसे ज्ञानपीठ को इसके प्रकाशन के लिए भेज दी। इस कार्य लिए डॉ. वीरसागर जी शुभाशीष के पात्र हैं। इसी श्रृंखला में राकेश जैन शास्त्री, जैनदर्शनाचार्य, दिल्ली के साथ ही समय-समय पर प्रो. डॉ. विश्वनाथ चौधरी, आरा (बिहार) एवं डा. सुभाषचन्द सचदेवा "हर्ष" सोनीपत (हरि.) का तात्त्विक सहयोग मिला, वे अनन्य आशीर्वाद के पात्र हैं। ___ तत्त्वार्थसार की टीका का नामकरण-जिन्होंने बीसवीं शताब्दी में यथार्थ मुनिचर्या का परिचय कराया ऐसे प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शान्तिसागर जी महाराज के तृतीय पट्टाधीश आचार्य-शिरोमणि श्री धर्मसागर जी महाराज जो रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग के प्रतीक हमारे दिगम्बर दीक्षा प्रदाता हैं, और द्वादशवर्षीय उत्कृष्ट यम सल्लेखना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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