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________________ 34 :: तत्त्वार्थसार इस प्रकार इस तत्त्वार्थसार के नव अधिकारों में कुल 718 श्लोकों की संख्या है। अधिकांश श्लोक अनुष्टुप् छन्द में हैं, लेकिन कुछ अधिकारों के अन्त में आर्या, शालिनी एवं वसन्ततिलका छन्दों का भी प्रयोग किया है। पाठभेद-अद्यावधि प्रकाशित कृतियों में तीन कृतियाँ प्रमुख हैं : (1) सन् 1919, कलकत्ता प्रकाशन । (2) सन् 1926, प्रथम गुच्छक काशी। (3) सन् 1970, वाराणसी। इन तीनों प्रकाशनों में पाठभेद अधिकांशतः व्याकरण सम्बन्धी हैं, या लिपिकारों की मुद्रण अशुद्धि हैं। 13 लेकिन किन्हीं भी पाठभेदों में अर्थविपर्यास नहीं है। इस प्रकार यह तत्त्वार्थसार ग्रन्थ, श्लोकमय-पद्य रचना मोक्षमार्ग का सम्पूर्ण वर्णन करने वाला होने से मोक्षशास्त्र ही है। इसकी सम्पुष्टि ग्रन्थ के अन्त में पुष्पिका वाक्य के द्वारा होती है "इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरीणां कृतिः तत्त्वार्थसारो नाम मोक्षशास्त्रं समाप्तम्।" टीका के प्रेरणास्रोत-आज से पच्चीस वर्ष पूर्व सन् 1984 में, अजमेर (राज.) में हमारी दिगम्बरी दीक्षा हो चुकी थी, तभी संतशिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी के संघस्थ ब्र. राकेशजी जबलपुर से किसी खास तात्त्विक चर्चा को लेकर हमारे शिक्षागुरु बहुश्रुत विद्वान आचार्यकल्प श्रुतसागर जी महाराज के पास आये थे। उस चर्चा में हम भी मध्यस्थ भाव से सुनने बैठते थे। चर्चा की समाप्ति पर हमारे शिक्षागुरु आचार्यकल्प श्रुतसागर जी ने कहा कि "आचार्य विद्यासागर जी बहुश्रुत विद्वान् हैं। उन्होंने अनेक पद्यानुवाद रचनाएँ लिखीं हैं। अच्छा हो कि आचार्यश्री अपने ज्ञान का उपयोग किसी ग्रन्थ की हिन्दी टीका लिखने में करें।" हमें नहीं पता कि हमारे शिक्षागुरु की बात आचार्यश्री तक पहुँची या नहीं, लेकिन यह वाक्य हमारे कानों में अनुगुंजित हुआ। उस समय से बात आयी-गयी हो गयी। इस बीच हमने भी कुछ स्वतन्त्र गद्य-पद्य रचनाएँ तैयार की जो यथासमय प्रकाशित भी हुईं। इनमें 'मन्दिर' कृति हिन्दी, मराठी, कन्नड़, गुजराती एवं अंग्रेजी भाषा में लाखों की संख्या में प्रकाशित हुई, जिससे जन-साधारण से लेकर त्यागी-व्रती, विद्वान, साधुजनों को भी विशेष चिन्तन का विषय मिला। सन् 2006 में श्रवणबेलगोल के गोम्मटेश्वर बाहुबली भगवान का महामस्तकाभिषेक तय हो गया। ट्रस्टाध्यक्ष कर्मयोगी चारुकीर्ति भट्टारक जी ने महोत्सव कमेटी के जिम्मेदार पदाधिकारियों द्वारा महामस्तकाभिषेक के लिए निमन्त्रण भिजवाया। कुछ संघसेवक, समाज के श्रद्धालु श्रावक जनों ने संघ की निरापद यात्रा कराने की जिम्मेदारी ली एवं प्रभावनापूर्ण ढंग से संघ विहार करता हुआ श्रवणबेलगोल पहुँचा। उस महोत्सव में आचार्य वर्द्धमान सागरजी प्रभृति लगभग दो सौ पचास पिच्छीधारी सम्मिलित थे। मुख्य अभिषेक प्रभावनापूर्ण ढंग से सम्पन्न हुआ। अनेक संघ अपनी पूर्व नियोजित यात्राओं के लिए विहार कर गये। भट्टारक चारुकीर्ति जी ने महामस्तकाभिषेक के पूर्ण समापन समारोह के लिए हमें संघ सहित श्रवणबेलगोल में ही वर्षायोग के कार्यक्रम के लिए विशेष विनय-भक्तिपूर्वक रोक लिया। सन् 2006 के वर्षायोग में लगभग दश संघों के पच्चीस पिच्छीधारी वहाँ विराजमान थे। नित्य प्रतिदिन समयसार जी एवं सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थों का सामूहिक स्वाध्याय होता था। भट्टारक चारुकीर्ति जी यथासमय स्वाध्याय में अवश्य आते एवं अपने दार्शनिक मौलिक चिन्तन से दोनों ग्रन्थों के विषयों का अधिक खुलासा करते थे, इसी क्रम में हमें भी अपने तात्त्विकमौलिक चिन्तन को सभी के सामने रखने का अवसर प्राप्त होता था। 113. आ. अ., व्य. कृ., पृ. 359 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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