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सातवाँ अधिकार : 305
को सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती अथवा सूक्ष्मक्रिया कहते हैं । सर्व भावों को जाननेवाले केवली भगवान का यह ध्यान है, इसलिए इस ध्यान को सर्वभावगत भी कहते हैं ।
तीसरे शुक्ल ध्यान का समय व प्रयोजन
काययोगेऽतिसूक्ष्मे तद् वर्तमानं हि केवली । शुक्लं ध्यायति संरोद्धुं काययोगं तथाविधम् ॥ 52 ॥
अर्थ - योगनिरोध के समय अतिसूक्ष्म हुए काययोग के सहारे से केवली भगवान् जिस तीसरे शुक्ल ध्यान का आरम्भ करते हैं उसका प्रयोजन योगनिरोध करना है। उस अन्त्य समय में दूसरे कोई योग तो रहते ही नहीं हैं। केवल काययोग रहता है वह भी अतिसूक्ष्म । उतने का ही निरोध इस तीसरे ध्यान द्वारा किया जाता है। परिणामस्वरूप केवली भगवान् सयोग से अयोग बन जाते हैं ।
चौथा व्युपरतक्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान का स्वरूप एवं प्रयोजन - अवितर्कमवीचारं ध्यानं व्युपरतक्रियम् ।
परं निरुद्धयोगं हि तच्छैलेश्यमपश्चिमम् ' ॥ 53 ॥ तत्पुनारुद्धयोगः सन् कुर्वन् कायत्रयासनम्। सर्वज्ञः परमं शुक्लं ध्यायत्यप्रतिपत्ति तत् ॥ 54 ॥
अर्थ - व्युपरतक्रियानिवृत्ति ध्यान चौदहवें गुणस्थानवर्ती भगवान् केवली को प्रकट होता है। इसमें योगनिरोध पूरा-पूरा हो चुकता है, इसलिए इसके स्वामी को शीलेश अथवा शैलेश्य कहते हैं । आत्मा अठारह हजार शुद्ध शील-स्वभाव गिनाये हैं । वे सब स्वभाव इस अवस्था में प्रकट हो जाते हैं। क्रिया अर्थात् योगप्रवृत्ति पूरी बन्द पड़ जाने से इस ध्यान को 'व्युपरतक्रिया' कहते हैं। योगनिरोध पूरा हो जाने से तीनों विद्यमान शरीरों का विश्लेषण होने लगता है। वे तीन विद्यमान शरीर कौन से हैं? औदारिक, तैजस, कार्मण । आत्मा जो शरीरों को सहारा देता है उसी को योग कहते हैं । उसी सहारे के सामर्थ्य से शरीरों का पोषण होता रहता है—शरीरपोषक पुद्गल बाहर से आ आकर शरीर में मिलते हैं और शरीरों को पुष्ट करते हैं। वह सहारा छूट जाने से उक्त तीनों शरीर जीर्ण होने लगते हैं। यही शरीरों का ह्रास है । योगक्रिया सर्वथा बन्द पड़ जाने से शरीरों के ह्रास होने में अधिक विलम्ब नहीं लगता। ठीक भी है, आश्रय का अभाव होने पर आश्रयी के नष्ट होने में विलम्ब कैसे सम्भव हो सकता है ? इसलिए श्रुतकेवली के मुख से पाँच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण में जितना काल लगता है उतने काल में योगी तीनों शरीर छूट जाते हैं, इसीलिए उसे अप्रतिपत्तिक कहा है। इस प्रकार योगी चौथे परम शुक्ल ध्यान को वितर्क- वीचार रहित ध्याता है। इससे अधिक विशुद्ध दूसरा कोई ध्यान नहीं है, इसी ध्यान से परम निर्जरा होती है ।
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1. सीलेसिं संपत्तो णिरुद्धणिस्से स आसवो जीवो। कम्मरयविप्पमुक्को गयजोगो केवली होदि ॥ गो. जी. गा. 651
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