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________________ 304 :: तत्त्वार्थसार दूसरा ध्यान कहते हैं । ध्यान के विषय को यहाँ द्रव्य कहा है। वह द्रव्य एक ही बना रहता है। योग भी कोई एक ही बना रहता है। ऐसा ध्यान क्षीणमोह, वीतरागी, परमयोगी को प्राप्त होता है। इस प्रकार विषय में द्रव्य, गुण, पर्यायों में से एक मात्र द्रव्य रह जाने से इस ध्यान को एकत्वरूप कहते हैं । अभी श्रुतज्ञान के वचनों का आलम्बन इस ध्यान में भी लगा हुआ रहता है इसी बात को आगे दिखाते हैं । श्रुतं यतो वितर्कः स्यात् यतः पूर्वार्थशिक्षितः । एकत्वं ध्यायति ध्यानं सवितर्कं ततो हि तत् ॥ 49॥ अर्थ - द्वादशांगपूर्वपर्यन्त श्रुतज्ञान का ज्ञाता इस एकत्व ध्यान का आरम्भ करता है। श्रुतज्ञान का नाम वितर्क है; इसलिए इस ध्यान को एकत्व सहित तथा सवितर्क अथवा वितर्क सहित कहते हैं । एकत्व वितर्क वीचार रहित है अर्थव्यंजनयोगानां वीचारः संक्रमो मतः । वीचारस्य ह्यसद्भावादवीचारमिदं भवेत् ॥ 50 ॥ अर्थ - अर्थव्यंजनयोगों के संक्रमण को वीचार कह चुके हैं। यह वीचार इस ध्यान में नहीं रहता है इसलिए इस दूसरे ध्यान को अवीचार कहते हैं। प्रथम ध्यान को पृथक्त्ववितर्क कहा था और इसे एकत्ववितर्क कहते हैं, अर्थात् वितर्क दोनों में ही रहता हैं, परन्तु पृथक्त्व बदलकर यहाँ एकत्व प्राप्त हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि अर्थव्यंजनयोगों के संक्रमण को जो वीचार कहते हैं वह वीचार प्रथम ध्यान में रहने से ध्यान में एकता नहीं कही जा सकती है। प्रथम ध्यान जहाँ तक माना गया है वहाँ तक सचमुच वह एक ध्यान नहीं होता, किन्तु अनेकों ध्यान होते हैं, तो भी लक्षण समान रहने से उन अनेक ध्यानों की सन्तान को भी एक ध्यान कह देते हैं । इस प्रकार प्रथम ध्यान में एकता उपचार सिद्ध है, इसीलिए उसे एक संख्या में गर्भित करते हुए ग्रन्थकार पृथक्त्व विशेषण द्वारा उसका अनेकपना द्योतित करते हैं। वीचार विशेषण से भी यही बात सिद्ध होती है, परन्तु वीचार विशेषण ध्यान के कारणों में अनेकता दिखाता है और पृथक्त्व विशेषण साक्षात् ध्यान में अनेकता दिखाता है, इसीलिए इस ध्यान के नाम के साथ पृथक्त्व पद जोड़ा गया है और वीचार नहीं जोड़ा गया है। हाँ, समर्थन करते समय वीचार को ही दिखाया है, इसलिए मानना चाहिए कि प्रथम ध्यान में पृथक्त्व है और वह वीचार के होने से होता है। वीचार न रहने से दूसरे ध्यान का नाम एकत्ववितर्क है। एकत्व कहने से ही वीचार का अभाव सिद्ध हो जाता है । सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती ध्यान का स्वरूप अवितर्कमवीचारं, सूक्ष्मकायावलम्बनम् । सूक्ष्मक्रियां भवेद् ध्यानं सर्वभावगतं हि तत् ॥ 51 ॥ अर्थ- तीसरे ध्यान में न वितर्क का आलम्बन रहता है और न संक्रमण ही होता है। योगों में से भी एक काय मात्र का अवलबन रह जाता है। वह भी अतिसूक्ष्म रहता है, इसलिए इस तीसरे ध्यान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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