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________________ सातवाँ अधिकार :: 293 (7) सांवत्सरिक प्रतिक्रमण आदि के समय कोलाहल अधिक उठने पर अपने पूर्व दोष का निवेदन कर दें, जिससे कि कोई सुनने न पावे, यह सातवाँ 'शब्दाकुलित' नाम का दोष है । (8) गुरु के बता देने पर भी उस प्रायश्चित्त में शंका समझकर दूसरों से पूछें कि इस दोष का प्रायश्चित्त ऐसा ही होना चाहिए या कोई दूसरा होना चाहिए ? इसे 'अन्यसाधुपरिप्रश्न' नाम का आठवाँ दोष कहते हैं। (9) कुछ बहाना बताकर यदि किसी अपने समान साधु से ही प्रायश्चित्त पूछ कर लिया जाए तो वह बड़ा प्रायश्चित भी फलीभूत नहीं होता, इसलिए यह भी एक दोष है। (10) अपने दोष के समान दूसरों का दोष आलोचित होते हुए सुनकर उसी के प्रायश्चित्त को आप धारण कर लें, परन्तु अपना दोष प्रकट न करें, यह सदुश्चरितसंवरण नाम का दशवाँ दोष है। ऐसे सब दोष लगते तभी हैं जब कि मायाचारपूर्वक प्रायश्चित्त करता हो । यदि सरल भावों से आलोचनादि करे तो कोई भी दोष नहीं लगता है। प्रतिक्रमण और तदुभय का स्वरूप अभिव्यक्तप्रतीकारं मिथ्या मे दुष्कृतादिभिः । प्रतिक्रान्तिस्तदुभयं संसर्गे सति शोधनात् ॥ 23 ॥ अर्थ- मेरा अमुक पाप दुष्कृत - मिथ्या हो - इत्यादि शब्दों द्वारा किसी पाप का प्रतिकार करना, प्रकट दिखाया जाए सो प्रतिक्रमण है। पाप हो जाने पर उसके पछतावे को प्रकाशित करना - यह प्रतिक्रमण का अर्थ है। कोई प्रबल दोष छूटता नहीं दिखता तब आलोचन और प्रतिक्रमण ये दोनों करने पड़ते हैंइसका नाम तदुभय अथवा 'आलोचन - प्रतिक्रमणोभय' है । तप प्रायश्चित्त का स्वरूप भवेत्तपोऽवमौदर्यं वृत्तिसंख्यादि-लक्षणम् । अर्थ - अवमौदर्य तथा वृत्तिपरिसंख्यान आदि जो तप पहले कहे हैं वे ही तप किसी दोष का प्रायश्चित्त करने के लिए जब धारण किये जाते हैं तब तप नाम के प्रायश्चित्त कहे जाते हैं । व्युत्सर्ग का स्वरूप कायोत्सर्गादि - करणं व्युत्सर्गः परिभाषितः ॥ 24 ॥ अर्थ – प्रतिमायोग आदि धारण करते समय शरीर से ममत्व छोड़ना कायोत्सर्ग है । कायोत्सर्ग आदि क्रिया प्रायश्चित्त की इच्छा से की जाए तो उसे व्युत्सर्ग कहते हैं । विवेक प्रायश्चित्त का स्वरूप अन्नपानौषधीनां तु विवेकः स्याद् विवेचनम् । अर्थ- संसक्त अन्न, पान अथवा औषधि का विभाग करके ग्रहण करना - यह विवेक नाम का प्रायश्चित्त है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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