SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 292 :: तत्त्वार्थसार प्रायश्चित्त तप के भेद आलोचनं प्रतिक्रान्तिः तथा तदुभयं तपः। व्युत्सर्गश्च विवेकश्च तथोपस्थापना मता ॥21॥ परिहारस्तथा छेदः प्रायश्चित्तभिदा नव। अर्थ-1. आलोचन, 2. प्रतिक्रमण, 3. आलोचन-प्रतिक्रमणोभय, 4. व्युत्सर्ग, 5. विवेक, 6. उपस्थापना, 7. परिहार, 8. छेद, 9. तप-ये नौ प्रायश्चित्त के भेद हैं। आवश्यकता और पात्रता जुदीजुदी होने से इन नौ भेदों का उपयोग जुदा-जुदा होता है। सुवर्ण की शुद्धि जिस प्रकार तपाये बिना नहीं होती, उसी प्रकार तप के बिना आत्मा की भी कर्ममल से शुद्धि नहीं होती। जैसे, संस्कार के बिना अग्नि मलशोधन का काम नहीं कर सकती, उसी प्रकार प्रायश्चित्त के बिना तप कर्ममल शोधने का काम नहीं कर सकता है। इसी कारण से इसको अन्तरंग के जुदे भेद में गिनाया गया है। दोष टालने का उपाययह प्रायश्चित्त का सामान्य अर्थ है। आलोचन का स्वरूप आलोचनं प्रमादस्य गुरवे विनिवेदनम्॥22॥ ___ अर्थ-गुरु के पास जाकर अपने से हुए प्रमाद का सुनाना आलोचन है। आकंपितादि दस दोष न लगाते हुए यह निवेदन करना चाहिए। ___ जो दश दोष लग सकते हैं उनका स्वरूप इस प्रकार है-(1) उपकरण देने से गुरु मेरे दोष के प्रायश्चित्त को थोड़ा कर देंगे-ऐसा विचार कर पहले कुछ पुस्तक, कमंडल आदि दान देना और फिर दोष निवेदन करना-यह प्रायश्चित्त का प्रथम दोष है। (2) मैं असमर्थ हूँ, दुर्बल हूँ। उपवास आदि कठिन तप नहीं कर सकूँगा। यदि आप कोई छोटासा प्रायश्चित्त दें तो मैं दोष निवेदन करता हूँ ऐसा बोलना फिर दोष कहना, दूसरा दोष है। (3) जिस दोष को किसी ने देखा न हो उसे तो छिपा लेना और उस दोष को कह देना जो कि दूसरों ने देख लिया हो, यह तीसरा 'मायाचार' दोष है। (4) आलस्य के या प्रमोद के वश होकर दोष निवेदन करने में उत्साह न रखना, किन्तु आवश्यकता समझकर मोटे-मोटे कह देना, यह चौथा 'स्थूल दोष प्रतिपादन' नाम का प्रायश्चित्त दोष है। (5) महादोष का प्रायश्चित्त भी दुर्धर होगा ऐसा विचारकर उस प्रायश्चित्त से डरता हुआ बड़े दोष को यदि छिपा लें और नित्यक्रमानुसार प्रमादाचार का निवेदन कर दें तो 'प्रमादाचार विबोधन' नाम का पाँचवाँ दोष लगाता है। __(6) गुरु से कुछ इस तरह पूछे कि महाराज, ऐसे दोष का प्रायश्चित क्या होता है ? इस तरह पूछकर प्रायश्चित्त कर लें, परन्तु गुरु आदि को मालूम न होने दे, यह गुरुपासना नामक छठा दोष है। 1. महदपि तपःकर्म अनालोचनपूर्वकं नाभिप्रेतफलप्रदम्-आविरिक्तकायगतौषधवत् कृतालोचनस्यापि गुरुदत्तप्रायश्चित्तमकुर्वतोऽपरिकर्म सस्यवन्महाफलं न स्यात्। कृतालोचनचित्तगतप्रायश्चित्तं परिमृष्टदर्पणतलरूपवत् परिभ्राजते।-रा.वा., 9/22, वा. 2 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy