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________________ 286 :: तत्त्वार्थसार अविपाक निर्जरा का लक्षण अनुदीर्णं तपःशक्त्या यत्रोदीर्णोदयावलीम्। प्रवेश्य वेद्यते कर्म सा भवत्यविपाकजा॥4॥ अर्थ-कर्मों का उदयकाल प्राप्त न हुआ हो तो भी जहाँ पर तपश्चरण के सामर्थ्य द्वारा उसे परिपाक हुई उदयावली में प्रवेश कराकर बन्धन से छुड़ा दिया जाता है उस समय की उस निर्जरा को अविपाक निर्जरा कहते हैं। फल देने का नाम उदय है, परन्तु फल न देकर भी जो खिरना है उसे भी कभी-कभी ग्रन्थकार उदय कह देते हैं, क्योंकि, कर्म फल दे या न दे, परन्तु बन्धन की दृढ़ अवस्था से उसकी शिथिल अवस्था दोनों ही बार होती है। उसी को उद्रिक्त (आवेगपूर्ण) नाम से भी कहते हैं। फल भोगने में आना, न आना-यह बात केवल कर्माधीन नहीं है, किन्तु बाह्य निमित्त का होना, न होना भी फल भुगाने में कारण होता है। तपश्चरण के द्वारा जो कर्म खिपाये जाते हैं उनके भुगानेवाले बाह्य निमित्तों का एक साथ एकत्र होना कठिन तथा असम्भव बात है। अत: तपश्चरण द्वारा खिपनेवाले कर्म उदित होकर बिना फल दिये खिर जाते हैं, परन्तु भोगने में आनेवाले कर्मों का और बिना भोगे ही खिरनेवाले कर्मों का खिरने के समय जो उद्रेक होता है वह एक-सा होता है। इतनी समानता को देखकर ग्रन्थकार अविपाक निर्जरावाले कर्मों को भी उदयावली में प्रविष्ट होनेवाले मानते हैं और उनका वेदन होना भी बताते हैं। परन्तु यहाँ पर ध्यान रखना चाहिए कि फल भोगने रूप जो उदय है, वह उदय यहाँ पर नहीं होता। यदि इस उदीर्ण उदयावली में भी फल भोगने का नियम हो तो निर्जरा का यह दूसरा भेद ही न बन सकेगा। फिर फल भोगनेवाले के नवीन कर्म भी नियम से बँधते ही हैं। ऐसी हालत में उनका मुक्त होना असम्भव हो जाएगा, इसलिए मानना चाहिए कि निष्काम तपश्चरण करनेवाले के जो कर्म खिरते हैं वे बिना फल भोगे ही खिराये जाते हैं। प्रश्न-यदि बिना फल भोगे भी कर्म खिर जाते हैं तो कृतनाश का दोष क्यों न आएगा? उत्तर-जो काम किया जाता है उसका जहाँ पर कोई भी फल सम्भव नहीं होता, वहाँ पर कृतनाश का दोष आता है। बाँधे हुए कर्मों द्वारा जीव परतन्त्र बन जाता है, इसलिए कर्म का बन्ध निष्फल नहीं माना जा सकता है। इस प्रकार उदय सम्बन्धी फल न मिलने पर भी कृतनाश का दोष नहीं आ सकता है, इसलिए बद्ध कर्मों को भोगकर खिराने का नियम मानना असंगत बात है। अविपाकनिर्जरा का उदाहरण यथाम्रपनसादीनि परिपाकमुपायतः। अकालेऽपि प्रपद्यन्ते तथा कर्माणि देहिनाम्॥5॥ अर्थ-जिस प्रकार आम, पनस इत्यादि कच्चे फल पाल में रख देने से असमय में भी पक जाते हैं उसी प्रकार जीवों के कर्म उदयकाल आने से पहले भी तपश्चरणादि प्रयोग द्वारा परिपक्व हो जाते हैं। हम ऊपर कह चुके हैं कि बिना फल दिये भी कर्म खिर सकते हैं, उसी का यह उदाहरण है। जीव से सम्बन्ध छोड़ने के सन्मुख हो जाना ही परिपाक होने का अर्थ है। भोगने के योग्य होने का अर्थ यह है कि जीव के साथ जो दृढ़ बद्ध था, उससे शिथिल हो जाना, जिससे की आगे सम्बन्ध न रह सके। 1. इस उत्तर से इस वचन का भी समाधान हो जाता कि, "अवश्यमनुभोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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