________________
सातवाँ अधिकार
निर्जरा तत्त्व - वर्णन
मंगलाचरण एवं विषय-प्रतिज्ञा
अनन्त - केवल - ज्योतिः प्रकाशित- जगत्त्रयान् । प्रणिपत्य जिनान् मूर्ध्ना निर्जरा तत्त्वमुच्यते ॥ 1 ॥
अर्थ - केवलज्ञानरूप अनन्तज्योति के द्वारा तीनों जगत को प्रकाशित करनेवाले जिनेन्द्र भगवान को मस्तक झुकाकर निर्जरा तत्त्व का वर्णन करते हैं ।
निर्जरा के लक्षण व भेद
उपात्तकर्मणः पातो निर्जरा द्विविधा च सा ।
आद्या विपाकजा तत्र द्वितीया चाविपाकजा ॥ 2 ॥
अर्थ- बन्धे हुए कर्मों के झड़ जाने का नाम निर्जरा है । निर्जरा दो प्रकार की है- विपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा ।
विपाक निर्जरा का लक्षण
Jain Educationa International
अनादि-बन्धनोपाधि विपाक - वशवर्तिनः ।
कर्मारब्ध- फलं यत्र क्षीयते सा विपाकजा ॥ 3 ॥
अर्थ - अनादि काल से कर्मबन्धन की जो उपाधि लगी हुई है, उसका जब-जब फलकाल उपस्थित होता है तब-तब वे कर्म फल दे-देकर खिरते हैं । बस, इसी का नाम विपाक निर्जरा है । ऐसी निर्जरा सदा ही होती रहती है । जब कोई भी कर्म बँधता है वह कुछ स्थिति की मर्यादा रखता हुआ ही बँधता है, इसलिए उतनी स्थिति पूरी होने पर वह कर्म खिरना ही चाहिए। इसी प्रकार अनादि काल से पूर्व कर्म खिरते जाते हैं और नवीन कर्म बँधते जाते हैं। ऐसी लड़ी बराबर चली आ रही है। कभी-कभी, किसीकिसी कर्म की पूर्वबद्ध स्थिति खत्म हो जाने पर भी उस समय स्थितिवर्धक निमित्त मिल जाने से स्थिति बढ़ जाती है। ऐसा होने पर कभी न कभी उनका अन्त आता ही है । इस प्रकार यह सब विपाक निर्जरा सदा ही होती रहती है। यह निर्जरा होते हुए भी जीव कर्मों से छूट नहीं पाता है; क्योंकि, एक खिरता है तो दूसरा बँधता है। कर्मों से छूटने का उपाय अविपाक निर्जरा है। इस प्रकरण में वही निर्जरा ली जाती है।
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org