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________________ छठा अधिकार :: 279 अशुचित्वानुप्रेक्षा का स्वरूप नाना कृमि-शताकीर्णे दुर्गन्धे मलपूरिते। आत्मनश्च परेषां च क्व शुचित्वं शरीरके॥36॥ अर्थ-अनेक प्रकार के सैकडों कृमि-कीटों से यह शरीर भरा रहता है और मूत्र-विष्टा-थूकखकार-पीव इत्यादि मलों से पूरित रहता है, इसलिए न यह शरीर पवित्र है और न दूसरों का। जैसा यह शरीर, वैसा ही दूसरों का। इसमें पवित्रता कहाँ से आयी? ऐसे अपवित्र नीच शरीर में स्नेह करना या आसक्ति रखना बड़ी भूल है। आस्रवानुप्रेक्षा का स्वरूप कर्माम्भोभिः प्रपूर्णोऽसौ योगरन्ध्रसमाहृतैः। हा दुरन्ते भवाम्भोधौ जीवो मज्जति पोतवत्॥ 37॥ अर्थ-कर्मों के भर जाने से जीव संसार में डूबता है। संसार मानो एक समुद्र है। कष्ट है कि समुद्र का कदाचित् अन्त भी लग जाए, परन्तु इसका अन्त कभी नहीं लगता। जीव जहाज के समान है। योगरूप छिद्रों द्वारा संचित हुए कर्मरूप जल से प्राणी परिपूर्ण हो रहा है, इसलिए समुद्र के समान इस संसार में डूबता है। योग ही आस्रव है। इसी के द्वारा कर्म आते हैं। न कर्म आते और न ही प्राणी डूबता। इस सारे दुःख का कारण योग अथवा आस्रव है। संवरानुप्रेक्षा का स्वरूप योगद्वाराणि रुन्धन्तः कपाटैरिव गुप्तिभिः। आपतद्भिर्न बाध्यन्ते धन्याः कर्मभिरुत्कटैः॥38॥ अर्थ-योग अथवा आस्रवरूप द्वारों को जो किवाड़ों के समान गुप्ति द्वारा बन्द करते हैं वे धन्य हैं। वे आते हुए कर्मों द्वारा भी बाधित नहीं हो पाते हैं। आने का द्वार ही रुक गया तो आपत्तियाँ आ कहाँ से सकती हैं, इसलिए जो योग-द्वारों को रोक देते हैं वे ही कर्मों के जाल से बचते हैं। वे धन्य हैं। उन्हीं का अनुकरण सबको करना चाहिए। यह हुआ आनेवाले नवीन कर्मों के रोकने का उपाय। अब संचित कर्मों के खिपाने का उपाय कहते हैं। निर्जरानुप्रेक्षा का स्वरूप गाढोऽपजीर्यते यद्वद् आमदोषो विसर्पणात्। तद्वद् निर्जीर्यते कर्म तपसा पूर्वसञ्चितम्॥ 39॥ अर्थ-रेचन की औषध सेवन करने से जिस प्रकार गाढ जमा हुआ आम दोष अथवा अजीर्णता का दोष दूर हो जाता है उसी प्रकार पूर्वसंचित कर्म तपश्चरण करने से नष्ट हो जाता है। यह संचित कर्म के दूर करने का उपाय है। इससे कैसा ही दृढ़बद्ध कर्म भी नष्ट हो जाता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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