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________________ 278 :: तत्त्वार्थसार समय से उसके साथ लगा हुआ है, इसलिये इन शरीरादिकों को स्थिर मानकर इनमें प्रीति करना बड़ी भूल है। ऐसी मूर्खता को धिक्कार हो। अशरण अनुप्रेक्षा का स्वरूप उपघ्रातस्य घोरेण मृत्यु-व्याघ्रण देहिनः। देवा अपि न जायन्ते शरणं किमु मानवाः ॥32॥ अर्थ-भयंकर मृत्युरूपी व्याघ्र जब जीव को आ घेरता है तब देव भी बचाने को समर्थ नहीं होते, मनुष्यों की तो बात ही क्या है! ऐसे शरणरहित इस जीवन को धिक्कार हो। संसारानुप्रेक्षा का स्वरूप चतुर्गति-घटीयन्त्रे सन्निवेश्य घटीमिव। आत्मानं भ्रमयत्येष हा कष्टं कर्म-कच्छिकः ॥33॥ अर्थ-जैसे घटीयन्त्र में घटी को लगाकर काछी उसे फिराता है उसी प्रकार चतुर्गतिरूप घटीयन्त्र में यह कर्मरूपी काछी जीवरूप घटी को लगाकर निरन्तर फिराता है, यह बड़ा कष्ट है। इस कर्म के वश प्राणी को कभी तिर्यंच तो कभी देव, कभी मनुष्य तो कभी नारकी-इस प्रकार नाना योनियों में फिरना पड़ता है। कभी चैन से स्थिर नहीं हो पाता। इस फिराने का कारण कर्म है। इस परिभ्रमण का नाम ही संसार है, इसलिए समझना चाहिए कि संसार कोई सुख की चीज नहीं है। एकत्वानुप्रेक्षा का स्वरूप कस्यापत्यं पिता कस्य कस्याम्बा कस्य गेहिनी। एक एव भवाम्भोधौ जीवो भ्रमति दुस्तरे॥34॥ अर्थ-किसका कौन पुत्र और कौन किसका पिता? किसकी कौन माँ और किसकी कौन स्त्री? दुस्तर संसारसमुद्र में जीव अकेला ही इधर से उधर भटकता है, इसलिए किसी को अपना समझना नितान्त भ्रम है। अन्यत्वानुप्रेक्षा का स्वरूप अन्यः सचेतनो जीवो वपुरन्यदचेतनम्। हा तथापि न मन्यन्ते नानात्वमनयोर्जनाः॥35॥ अर्थ-जीव अन्य है और शरीर अन्य है। जीव का चैतन्य लक्षण है और शरीर का जड़ता लक्षण है। इन लक्षणों से दोनों जुदे-जुदे अनुभव में आ सकते हैं। तो भी, बड़ा खेद है कि मनुष्य शरीर को अपने से जुदा नहीं मानते हैं। जब दोनों ही भिन्न-भिन्न हैं तो इस शरीर को अपनाना बड़ी भूल है। जैसे शरीर भिन्न है वैसे ही पुत्र, धनधान्यादिक प्रत्यक्ष ही भिन्न हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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