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276 :: तत्स्वार्थसार
फल है, इसलिए इसे शौचादि के बाद में कहा है क्योंकि यह आकिंचन्य धर्म शौच, त्यागादि धर्म हुए बिना नहीं पल सकता है। इसकी महिमा भी इतनी है कि ठीक-ठीक इस धर्म की भावना रहे तो जीव सब कुछ छोड़ते हुए भी त्रैलोक्य का स्वामी' बन सकता है। सर्व धर्म हो जाने पर ही यह होता है। इसके बाद यदि भेदरूप से कहा जा सकता है तो वह एक ब्रह्मचर्य ही है जो कि पूर्णरूप से देखने पर उसका अन्तिम स्वरूप जान पड़ेगा और जिसका कहना आकिंचन्यादि धर्मों की पुष्टि के लिए ही है। ब्रह्मचर्यधर्म का स्वरूप
स्त्री-संसक्तस्य शय्यादेरनुभूतांगना स्मृतेः।
तत्कथायाः श्रुतेश्च स्याद् ब्रह्मचर्यं हि वर्जनात्॥21॥ अर्थ-स्त्रीसम्बन्धी शयन-स्थानादिकों का त्याग करने से, अनुभव की हुई स्त्रियों के स्मरण का त्याग करने से और स्त्रियों की राग-कथा का कहने या सुनने तक का त्याग करने से, ब्रह्मचर्य धर्म प्राप्त होता है। गुरुओं के पास, इस धर्म की सिद्धि के लिए जो वास करना है वह भी ब्रह्मचर्य ही है।
धर्मप्रवृत्ति का फल
इति प्रवर्तमानस्य धर्मे भवति संवरः।
तद्विपक्ष-निमित्तस्य कर्मणो नास्त्रवे सति ॥22॥ ___ अर्थ-इन धर्मों में प्रवर्तने से धर्म के विरुद्ध परिणामों द्वारा आनेवाला कर्म रुक जाता है, और संवर सिद्ध हो जाता है। कर्मास्रव रागद्वेषादि निमित्तों द्वारा होता है। धर्म उन रागद्वेषादिकों का विरोधी है, तब फिर कर्मों का आना क्यों बन्द न हो? परीषहों के नाम व जीतने का फल
क्षुत्पिपासा च शीतोष्णे दंशमत्कुणनग्नते। अरतिः स्त्री च चर्या च, निषद्या शयनं तथा ॥23॥ आक्रोशश्च वधश्चैव याचनाऽलाभयोर्द्वयम्। रोगश्च तृणसंस्पर्शः तथा च मलधारणम् ॥24॥ असत्कार-पुरस्कारं प्रज्ञाऽज्ञानमदर्शनम्। इति द्वाविंशतिः सम्यक् सोढव्याः स्युः परीषहाः॥25॥ संवरो हि भवत्येतानसंक्लिष्टेन चेतसा।
सहमानस्य रागादि निमित्तास्त्रव-रोधतः॥26॥ अर्थ-क्षुधापरीषह, पिपासापरीषह, शीतपरीषह, ऊष्मापरीषह, दंशमशकपरीषह, नग्नतापरीषह, अरतिपरीषह, स्त्रीपरीषह, चर्यापरीषह, निषद्यापरीषह, शयनपरीषह, आक्रोशपरीषह, वधपरीषह, याचनापरीषह, अलाभपरीषह, रोगपरीषह, तुणस्पर्शपरीषह, मलपरीषह, असत्कार-परस्कारपरीषह, प्रज्ञापरीषह, अज्ञानपरीषह.
1. अकिंचनोऽहमित्यास्व त्रैलोक्याधिपतिर्भवेत्॥ आ.शा.
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