SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छठा अधिकार :: 275 लिए भी जब तक स्वयं तप न तपा जाए तब तक कर्मक्षय नहीं हो सकता है। श्रम या तप स्वयं करना पड़ता है, उसी को तप कहते हैं । वह तप दो प्रकार से होता है, एक तो शरीर को उसके लिए एकाग्र करना और कृश करना, दूसरे उपयोग का उस तरफ लगाना और दूसरे विषयों से हटाना । इन्हीं को बाह्य व आभ्यन्तर ऐसे दो प्रकार के नामों से कहते हैं । इन दोनों प्रकार के श्रम में खूब तप होता है, इसलिए ये तप कहलाते हैं । ऐसे तपश्चरण के बिना कोई कार्य सिद्ध नहीं होता, इसलिए सभी कार्यों को सिद्ध करने में तप करना पड़ता है। चूँकि यहाँ पर दूसरे कार्य सिद्ध करना इष्ट नहीं है । इसलिए केवल कर्मक्षयार्थ किए जानेवाले को तप कहा है। ध्यान, तप का ही भेद है । उस ध्यान से ही सारे कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं। दूसरे शब्दों में, तप ही कर्मक्षय करने में समर्थ है। त्याग धर्म का स्वरूप त्यागस्तु धर्मशास्त्रादि-विश्राणनमुदाहृतम्' ॥ 19 ॥ अर्थ - धर्मशास्त्रादिकों के दान करने को त्याग कहते हैं । कहीं-कहीं परिग्रह के छोड़ने को त्याग कहा है, परन्तु वहाँ पर भी धर्मशास्त्रादि के अथवा ज्ञानादि के दान' को त्याग में ही गर्भित किया है। जहाँ पर परिग्रह-निवृत्ति को त्याग कहा है, वहाँ पर विद्यमान परिग्रह का त्याग करना - ऐसा अर्थ किया है । शौच धर्म में जो लोभनिवृत्ति' बतायी, वह इसलिए कि परिग्रह न रहते भी कदाचित् लोलुपता का दूर कराना शौचधर्म बताने का जुदा फल है । इसलिए देना त्याग है, न लेना शौच - निर्लोभता है, होने में आसक्ति न होना आकिंचन्य है। 1 आकिंचन्य धर्म का स्वरूप ममेदमित्युपात्तेषु शरीरादिषु केषुचित् । अभिसन्धिनिवृत्तिर्या तदाकिंचन्यमुच्यते ॥ 20 ॥ अर्थ - जो कुछ शरीरादिक मेरे हैं ऐसा समझकर ग्रहण कर रखे थे और अपना रखे थे, उनमें से ममत्व संकल्प का छूट जाना' आकिंचन्य है । मेरा कुछ नहीं है ऐसा जो मानने लगना है उसे अकिंचन कहते हैं। उसके अकिंचनत्व रूप परिणाम को अथवा कृति को आकिंचन्य कहते हैं । त्याग में विद्यमान परिग्रह का त्याग होना, शौच का अर्थ अविद्यमान में से भी लोलुपता छूट जाना कहा, परन्तु भिन्न दिखने वाले पदार्थों के ही विषय से उक्त दोनों धर्मों के होने पर निवृत्ति होना मुख्य फल है और जो जुदे नहीं जान पड़ते हैं तथा छूट भी नहीं सकते हैं ऐसे शरीरादि पदार्थों से भी ममत्व छूटना इस आकिंचन्य का 1. विश्राणनं वितरणं स्पर्शनं प्रतिपादनम् । इत्यमरः । 2. परिग्रहनिवृतिस्त्यागः । - रा. वा., 9/6 वा. 18 3. अथवा संयतस्य योग्यं ज्ञानादिदानं त्यागः । - रा. वा., 9/6 वा. 20 4. शौचवचनात्सिद्धिरिति चेन्न तत्रासत्यपि गर्धोत्पत्तेः । - रा. वा., 9/6 वा. 20 5. ममेदमित्यभिसंधिनिवृत्तिराकिंचन्यम् । - रा. वा., 9/6 वा. 21 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy