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________________ प्रस्तावना :: 31 आचार्यों की शैली में आगम, सिद्धान्त, न्याय एवं अध्यात्म आदि कई विधाओं का समावेश रहता है। जहाँ मतिज्ञान को आगम में मतिज्ञान कहते हैं वहीं न्याय दर्शन में स्मृति, चिन्ता, तर्क, बुद्धि, प्रतिभा, मेधा, प्रज्ञा, प्रत्यभिज्ञान एवं सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष भी कहते हैं। इसे ही सिद्धान्त भाषा में अभिनिबोध ज्ञान कहते हैं, उसी प्रकार अध्यात्म भाषा में मतिज्ञान का नाम ही स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है । इस बात की पुष्टि श्लोकवार्तिककार ने भी की है, अतः स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ज्ञान कोई नूतनज्ञान नहीं है मतिज्ञान का ही नाम है। 107 मध्यमरुचि शिष्य को जीवादि तत्त्वों का ज्ञान निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान इन छ अनुयोग द्वारा किया गया है। संसार में किसी भी वस्तु को जानने की मध्यम विधि निर्देश आदि से ही शुरू होती है। उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति के सामने उससे अज्ञात पदार्थ रखा जाए । उसे देखते ही वह पूछता है - यह क्या है ? इसके उत्तर में जो उस पदार्थ का नाम और स्वरूप है यही 'निर्देश' है। देखनेवाला पुनः दूसरा प्रश्न करता है - यह पदार्थ किसका है, अर्थात् इसका स्वामी कौन है ? इस प्रश्न का उत्तर 'स्वामित्व' के परिचय में दिया जाता है। देखनेवाला पुनः तीसरा प्रश्न करता है - यह पदार्थ बनता कैसे है ? इस प्रश्न का उत्तर 'साधन' का निरूपण है। देखनेवाले का पुनः चौथा प्रश्न, यह पदार्थ मिलता कहाँ-कहाँ है ? इसका उत्तर 'अधिकरण' है । पाँचवाँ प्रश्न पुनः होता है - यह पदार्थ कब तक रहता है? इसका उत्तर 'स्थिति' में होता है। अब छठा प्रश्न होता है कि इस पदार्थ के भेद या प्रकार कितने हो सकते हैं? इस प्रश्न का उत्तर 'विधान' द्वारा दिया जाता है । विस्ताररुचि शिष्य को जीवादि तत्त्वों का ज्ञान सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव एवं अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगों द्वारा किया जाता 1 जैसे - किसी वस्तु को खरीदने वाला व्यक्ति, किसी दुकान पर जाकर दुकानदार से इच्छित वस्तु के बारे में पूछता है कि अमुक वस्तु है क्या? यह 'सत्' है । यदि वह वस्तु उस दुकान में है तो दुकानदार पूछता है 'कितनी ' चाहिए ? यह 'संख्या' है। व्यक्ति पूछता है पहले दिखाओ 'कहाँ' है ? यह 'क्षेत्र' है। दुकानदार उस व्यक्ति को मालगोदाम में ले जाकर फेक्टरी आदि से खरीदी हुई वस्तु को दिखलाता है और व्यक्ति से यह पूछता है कि तुम इसे 'कहाँ तक' ले जाओगे ? यह 'स्पर्शन' है । पुनः व्यक्ति पूछता है कि यह वस्तु कितनी पुरानी है और 'कब तक' चलेगी ? दुकानदार उस वस्तु की मर्यादा बतलाता है। यह 'काल' है। यदि वह व्यक्ति को नापसन्द है तो दुकानदार से पूछता है कि नयी वस्तु 'फिर कब' मिल सकती है, दुकानदार नयी वस्तु आने का समय बतलाता है। यह 'अन्तर' है । यदि वह वस्तु व्यक्ति को पसन्द है तो वह उस वस्तु का मोलभाव करता है, दुकानदार उसे उसकी 'कीमत' बतलाता है। यह 'भाव' है। भाव तय होने के बाद कौन-सी वस्तु 'कितनी मात्रा' में खरीदी जाय, इसका आकलन करना 'अल्पबहुत्व' है । ठीक इसी तरह इन सत्संख्या आदि अनुयोगों को सभी जीवादि तत्त्वों एवं सम्यग्दर्शन आदि के साथ और संसार की अन्य वस्तुओं के साथ भी लगाकर अपने ज्ञान की अभिवृद्धि करना चाहिए । यह विस्ताररुचि शिष्य की अपेक्षा वस्तुस्वरूप समझने की विधि है । इस प्रकार तत्त्वार्थसार के प्रथम अधिकार में सम्यग्दर्शन आदि सहित प्रमाण- नय एवं निर्देशादि तथा सत्संख्यादि का युक्तिपूर्ण विवेचन है। इसमें कुल 54 श्लोक हैं । तत्त्वार्थसार के द्वितीय अधिकार में जीव के औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक इन पाँच स्वतत्त्वों का वर्णन, जीव का लक्षण बताने के लिए उपयोग का वर्णन एवं उसके भेद - प्रभेदों का वर्णन 107. तत्त्वा श्लो. वा., भा. 1, श्लो. 102-103 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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