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________________ छठा अधिकार :: 271 अर्थ-सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान-पूर्वक ऐहिक वांछा रहित योगों के यथार्थ निग्रह करने को गुप्ति कहते हैं। गुप्ति के तीन भेद हैं-1. मनोगुप्ति 2. वचनगुप्ति और 3. कायगुप्ति। गुप्ति में प्रवर्तनेवाले के योगों का निग्रह हो जाता है, इसीलिए योगों के निमित्त से आनेवाले कर्मों का आना बन्द पड़ जाता है, कर्मों का आना बन्द पड़ा कि संवर उसी समय हो जाता है। समितियों के भेद ईर्या-भाषैषणादाननिक्षेपोत्सर्गभेदतः। पञ्च गुप्त्यावशक्तस्य साधोः समितयः स्मृताः॥6॥ ___ अर्थ-गुप्तिरूप प्रर्वतन में जब साधु असमर्थ हो जाता है उस समय ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण व उत्सर्ग ये पाँच समितियाँ साधु के लिए मानी गयी हैं। ईर्यासमिति का लक्षण मार्गोद्योतोपयोगानामालम्ब्यस्य च शुद्धिभिः। गच्छतः सूत्रमार्गेण स्मृतेर्या समितिर्यतेः ॥7॥ ___ अर्थ-जो मार्ग शुद्ध हो, जिसमें दूसरे लोग भी चलते हों, प्रकाश बराबर पड़ता हो, साफ-साफ दिख सकता हो, उपयोग चलने में लग रहा हो अर्थात् सावधानी मन में हो, चलने के समय जो आलम्बन का विषय है वह भी शुद्धता से ग्रहण किया गया हो; इस प्रकार सूत्रमार्ग के अनुकूल यति गमन करें तो उनके ईर्यासमिति मानी जा सकती है। गमनसम्बन्धी शुद्धप्रवृत्ति का नाम ईर्यासमिति है। भाषासमिति का लक्षण व्यलीकादि-विनिर्मुक्तं सत्यासत्यामृषा-द्वयम्। वदतः सूत्रमार्गेण भाषासमितिरिष्यते॥8॥ अर्थ-सूत्रमार्ग के अनुसार सत्य और सत्यासत्य वचन बोलने से भाषासमिति हो सकती है। चार प्रकार के वचन होते हैं। 1. सत्य, 2. असत्य, 3. सत्यासत्य-उभय और 4. सत्यासत्य रहित अनभय। इनमें से अनुभय वचन तो द्वीन्द्रियादिकों को माना जाता है। जिसमें सत्यासत्य की कल्पनाविभाग न हों वह अनुभय होता है, इसलिए वैसा वचन तो ये साधु बोल ही नहीं सकते। असत्य बोलने में भी पाप के भागी बन जाते हैं, इसलिए असत्य बोलना ही नहीं चाहते हैं, तो फिर सत्य ही बोलना चाहिए। रहा सत्यासत्य का तीसरा भेद। वह ऐसी जगह होता है जहाँ कि बोलने का अभिप्राय असत्य न ठहराया जा सके, किन्तु वाच्यार्थ उपलब्ध न होने से सत्य भी न कहा जा सके। जैसे, आज्ञावचन । ऐसे वचन बोलने पड़ते हैं। इसलिए दो प्रकार बोलने को भाषासमिति कहा है। तात्पर्य यह कि वह वचन मित हो, अनर्थक न हो, बहुप्रलापरूप न हो, उसका अर्थ साफ झलकता हो, सन्देह रहित हो, अक्षर उसके साफ हों। उस बोलने में मिथ्यापना नहीं होना चाहिए, ईर्ष्या-असूया न होनी चाहिए, अप्रियता न होनी चाहिए, कठोरता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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