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________________ अर्थ - अपरिमित केवल ज्ञानरूप ज्योति के द्वारा तीनों लोक को प्रकाशित करनेवाले जिन भगवान को मस्तक से नमस्कार करके संवर तत्त्व को कहता हूँ । छठा अधिकार संवरतत्त्व वर्णन मंगलाचरण व विषय-प्रतिज्ञा अनन्त-केवल-ज्योतिः - प्रकाशित - जगत्त्रयान् । प्रणिपत्य जिनान् मूर्ध्ना संवरः संप्रचक्ष्यते ॥ 1 ॥ हैं। संवर का लक्षण - अर्थ - आत्मा का अस्तित्व सम्भव (अनुभूत) होने पर आस्रव का रुक जाना भगवान ने संवर कहा है । आस्रव के बहुत से भेद - प्रभेद पहले कहे जा चुके हैं। कषायादि के निमित्त से आस्रव के जो अनेक भेद हो जाते हैं वे सभी कर्मागम के कारण होते हैं । उन सभी को आस्रव कहते हैं । उन सबके रुक जाने से कर्मों का आना रुक भी जाता है। इस सब प्रकार के निरोध को संवर कहते हैं। यथोक्तानां हि हेतूनामात्मनः सति सम्भवे । आस्रवस्य निरोधो यः स जिनैः संवरः स्मृतः ॥ 2 ॥ संवर के कारण गुप्तिः समितयो धर्मः परीषहजयस्तपः । अनुप्रेक्षाश्च चारित्रं सन्ति संवरहेतवः ॥ 3 ॥ अर्थ- गुप्ति, समिति, धर्म, परीषहजय, तप, अनुप्रेक्षा और चारित्र ये सब संवर होने में कारण Jain Educationa International गुप्ति के लक्षण, भेद और फल योगानां निग्रहः सम्यग् गुप्तिरित्यभिधीयते। मनोगुप्तिर्वचोगुप्तिः कायगुप्तिश्च सा त्रिधा ॥ 4 ॥ तत्र प्रवर्तमानस्य योगानां निग्रहे सति । तन्निमित्तास्त्रवाभावात् सद्यो भवति संवरः ॥ 5 ॥ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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