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248 :: तत्त्वार्थसार
दान, लाभ, भोग, उपभोग, ये चार सामर्थ्य भी वीर्य की तरह हैं जो वास्तव में वीर्य से जुदे नहीं हैं, परन्तु शरीरसहित जीव में जुदे दो दिख पड़ते हैं, इसीलिए उस वीर्य के घातक कर्म को भी पाँच तरह मानते हैं। दानादि शक्तियाँ यदि वास्तव में जुदी-जुदी नहीं हैं तो भेद क्यों होते हैं ? इसका उत्तर
शरीर सहित जीव 1. देने का और 2. लेने का व्यवहार करता है, 3. भोगने का, 4. उपभोगने में भी शक्ति लगाता है, और 5. धरने उठाने, बोलने चलने, विचार करने आदि कर्मों के समय भी उसे शक्ति लगानी पड़ती है। ये पाँच भेद यावत् व्यवहारों के हो सकते हैं। इन भेदों में गर्भित न हो ऐसा एक भी व्यवहार नहीं है। ये पाँच प्रकार, शरीर न रहने पर शद्ध जीवों में नहीं मिल सकते हैं. इसीलिए इन भेदों को वार मानते, किन्तु शरीर रहने से ये उत्पन्न हो जाते हैं या संसारियों के ये व्यवहार कल्पित किये हुए हैं। यदि वास्तव में होते तो शुद्ध जीवों में इन पाँचों के कार्य संसारियों के कार्यों की तरह जुदे-जुदे होते हुए माने जाते, परन्तु ऐसा न मानकर शुद्ध जीवों में एक वीर्यगुण ही माना गया है इसलिए हम यह बात ठहराते हैं कि जिसको बल कहते हैं और जिसका कार्य सर्वकार्यों में सहायता पहुँचाना है वह एक ही गुण है। शरीर की उपाधि से उस बल के पाँच तरह के उपयोग होते हैं और उन पाँच तरह के उपयोगों में तरतमता सिद्ध करने वाला उनका घातक अन्तराय कर्म पाँच प्रकार का है। उन पाँचों ही भेदों का नाश हो जाने पर जो गण प्रकट होता है उसे वीर्य के नाम से ही कहते हैं और वह एक ही है। वह वास्तव में एक न होता तो घातक कर्म को भी मूल एक भेद में गर्भित क्यों करते? मूल व उत्तर प्रकृतिभेद लिखने का तो मतलब ही यह है कि जो वास्तव में तथा सामान्यता ये भिन्न जाति के स्वभाव हों उनके अनुसार मूल प्रकृति भेद हैं और उस एक दो स्वभाव के फिर जो उत्तर भेद हो सकते हैं उनके अनुसार उत्तर प्रकृति भेद ठहराये गये हैं।
अब ज्ञानावरण और दर्शनावरण ये दो घातिकर्म रहे और मोहनीय एवं अन्तराय इन दो घातियों का विचार हो चुका। ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण ये दो कर्म ज्ञान-दर्शन को घातते हैं। ज्ञान तो जीव का ऐसा प्रसिद्ध गुण और लक्षण है कि जीव की उतनी ही सत्ता कही जाए तो भी अतिशयोक्ति न होगी। ज्ञान है इसलिए जीव एक निराला तत्त्व माना जाता है। अब दर्शन क्या है यह विचार करते हैं।
दर्शन भी ज्ञान के समान चैतन्य का एक सूक्ष्म परिणाम है। पदार्थ मात्र के दो स्वभाव माने जाते हैं : सामान्य व विशेष । सामान्य वह है जो कि किसी दूसरे से मिलता-जुलता स्वभाव हो, विशेष वह है जो दूसरे से मिलता न हो। इन दोनों स्वभावों की सीमा सबसे व्यापक भी है और सबसे छोटी भी है और मध्य के भेदों को तो कुछ गिना ही नहीं सकते हैं। जैन शास्त्रों में जो संग्रह व व्यवहार नय का क्षेत्र या विषय है वही सामान्य तथा विशेष है। नय ज्ञानरूप होने से ग्राहक या विषयी हैं और ये सामान्यविशेष ग्राह्य या विषय हैं। इन्हीं सामान्यविशेष का हम दूसरी तरह यों भी वर्णन कर सकते हैं कि जो किसी एक लक्षण या आकृति का न हो वह सामान्य है और जो एक-एक लक्षण को एकएक आकृति को, धारण करता हो विशेष है । इत्थंलक्षण विशेष तथा अनित्थंलक्षण सामान्य यह भी सामान्य विशेष का ही अर्थ है। सामान्य बड़ी से बड़ी महासत्ता है और उसके ठीक समीपवर्ती द्रव्य, गुण, पर्याय
1. यदि क्षायिकदानादिभावकृतमभयदानादि सिद्धेष्वपि तत्प्रसंग:, नैष दोषः, शरीरनाम तीर्थंकरनामकर्मोदयाद्यपेक्षत्वात् । तेषां तदभावे
तदप्रसंगः । कथं तर्हि तेषां सिद्धेषु वृत्ति? परमानन्तवीर्यव्याबाधसुखरूपेणैव तेषां तत्र वृत्तिः।-सर्वा.सि., वृ. 261
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