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पाँचवाँ अधिकार :: 247 संसार का संक्षेप से स्वरूप कहें तो दुःखमय' है। चाहे फिर दुःख के कारण दूसरे कर्म भी हों, परन्तु मुख्य कारण मोहनीय कर्म है। अब यदि सारे दु:ख का कारण मोहनीय कर्ममात्र है तो मोह के नाश को सुख कहना चाहिए। बस, जो ग्रन्थकार मोह के नाश से सुख गुण की प्राप्ति मानते हैं वह मानना मोह के संयुक्त कार्य की अपेक्षा से ठीक है। वह मानना अभेद या व्यापक दृष्टि से है, इसीलिए जो सुख को अनन्तचतुष्टय में गर्भित करते हैं वे चारित्र तथा सम्यक्त्व को फिर जुदा नहीं गिनाते है, क्योंकि, सम्यक्त्व व चारित्र के ही समुदित स्वरूप को सुख कहा जाता है। बाह्य विषयों से उपेक्षा सो चारित्र है और अन्तरंग परिणति का होना सो सम्यक्त्व है। दोनों का पर्यवसान सुखगुण में या स्वरूपलाभ में ही होता है। यद्यपि चारित्र तथा सम्यक्त्व का भी सुख अर्थ हो सकता है, परन्तु शास्त्रकारों ने व्यवहार दृष्टि से इसका उल्लेख अनन्तचतुष्टय में किया है। वे उस-उस गुण की मुख्यता मानते हैं और शेष को गौण समझकर न कहने पर भी संगृहीत हो जाना समझते हैं, क्योंकि एक सुख गुण के ही उक्त दोनों विशेषाकार हैं । इस कथन से मोहनीय कर्म से कौन से गुण का घात होता है यह शंका भी दूर हो सकती है और वेदनीय की अघातकता भी सिद्ध हो जाती है, क्योंकि, वेदनीय किसी को घातता नहीं है, केवल घात हुए स्वरूप का अनुभव कराने में जीव को लगाता है। __ अब अन्तराय के विषय में कुछ कहते हैं। अन्तराय का कार्य जीव की शक्ति को घातना है। जीव का जो शुद्ध स्वरूप है वही उनकी शक्ति कहना चाहिए। अथवा, उसका उपयोग कर लेने में समर्थ होना सो शक्ति है। जीव का ज्ञान के सिवाय कोई समझ लेने योग्य जुदा स्वरूप या गुण ही नहीं है तो उसी की प्रवृत्ति से शक्ति का उपयोग होना मानना चाहिए। बस, ज्ञान की प्रवृत्ति में जो आत्मा की शक्ति खर्च होती है वही वीर्य या शक्ति कहलाती है। उसी के घातने वाले कर्म को अन्तराय कहते हैं। वीर्य शक्ति का घातक अन्तराय को मानना मुख्यता की अपेक्षा से है। मुख्यता यह है कि ज्ञानगुण की प्रवृत्ति में बाधा लानेवाला वीर्यान्तराय ही है; क्योंकि वह ज्ञान की साधक वीर्यशक्ति को नाशता है और ज्ञान में बाधा हो जाना साधारण मनुष्य की दृष्टि में भी आ जाता है। अतः वीर्यगण सभी कार्यकारिणी शक्तियों में मुख्य माना गया है और उसी का घातना अन्तराय का कार्य बताया गया है। वास्तव में देखें तो देने, लेने, भोगने, उपभोगने में जो शक्ति काम देती है उन्हें दानशक्ति, लाभशक्ति, भोगशक्ति व उपभोगशक्ति कहते हैं और उन्हें घातनेवाला भी अन्तराय कर्म होना ही है। इस अपेक्षा से अन्तराय का जो अर्थ ऊपर किया है वह उस अन्तराय के एक भेद का अर्थ रह जाता है, इसीलिए अन्तराय का सामान्य अर्थ शक्ति मात्र का घातक, ऐसा होगा और उस घातक कर्म के उत्तर भेद वीर्यान्तराय, दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय ये पाँच होंगे। इन्हें आगे स्पष्ट करेंगे।
हमने वीर्यान्तराय का अर्थ जो ऐसा कहा है कि ज्ञान की सहायक वीर्यशक्ति को वह घातता है सो मुख्यकार्य की दृष्टि से कहा है। वास्तव में उसका कार्य यह है कि किसी भी काम में जो वीर्य की आवश्यकता है उसे वह घातता रहता है।
1. स्वसुखं न सुखं नृणां किंत्वाभिलाषाग्निवेदनाप्रतीकारः। सुखमेव स्थितिरात्मनि निराकुलत्वाद्विशुद्धपरिणामात् ॥4॥ तत्त्वज्ञानतरंगिणी
अ. 17,2 शरीर में जो वीर्य नाम धातु है वह वीर्यनाम आत्म सामर्थ्य का सहायक रहता है इसलिए उसे वीर्यनाम प्राप्त हुआ है। वास्तव में देखें तो वीर्य का अर्थ सामर्थ्य है। इसीलिए उस शक्ति के घातक कर्म को वीर्यान्तराय कहते हैं और शक्ति को वीर्य कहते हैं।
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