SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 190 :: तत्त्वार्थसार अगले भव में यही मुझे मिले ऐसा प्राप्त करने का संकल्प होता है। निदान शल्य में ऐसा भाव होता है कि मैं भी दूसरों जैसा त्याग, तपस्या करूँ तो ऐसे सुख भोगूं। निदान बन्ध में अपने व्रत, पुण्य, तपस्या के फल की तुच्छ चाहना करना निदान बन्ध है, जो अगले भव के लिए किया जाता है। मिथ्या शल्य में मिथ्यादृष्टि लोगों की ख्याति, लाभ, पूजादि देखकर अपने परिणामों में भी उनके जैसी ही ख्याति, पूजा, लाभ, चमत्कार की भावना रखना मिथ्या शल्य है। यह शल्य भी चौथे गुणस्थान तक चलती है, लेकिन मिथ्यात्व भाव तो प्रथम गुणस्थान में ही चलता है। ये तीनों ही शल्य चौथे गुणस्थान तक ही चल सकती हैं। तीनों शल्य एक साथ हों यह नियम नहीं है। अतः व्रती निःशल्य होता है। व्रतियों के दो भेद अनगारस्तथाऽगारी स द्विधा परिकथ्यते। महाव्रतोऽनगारः स्यादगारी स्यादणुव्रतः॥79॥ अर्थ-व्रतियों का स्वरूप कह चुके हैं। वे व्रती अनगार तथा अगारी ऐसे दो प्रकार के हैं। महाव्रत धारियों को अनगार कहते हैं और अणुव्रतियों को अगारी कहते हैं। अगार, घर का नाम है। अगारी शब्द का अर्थ है गृहस्थ । घर छोड़ देनेवाला ऐसा अनगार शब्द का अर्थ होता है। इस अर्थ के अनुसार जंगल में रहनेवाला गृहस्थ भी अनगार और देवालयादि स्थानों में आकर बसनेवाला साधु भी अगारी कहा जा सकता है। परन्तु यहाँ अगार का अर्थ परिग्रह किया जाता है। जब शब्द उपलक्षणवाची मान लिया जाता है, तब उसके और भी अर्थ लेना युक्त हो जाता है। यहाँ अगार शब्द को परिग्रहों का उपलक्षणदर्शक मानते हैं, इसलिए सम्पूर्ण परिग्रहों का त्याग करने पर ही अनगार नाम मिल सकता है। यही बात श्लोक के उत्तरार्ध में अगारी-अनगारी शब्दों का लक्षण करके बता दी है। ___ अथवा, जिसकी इच्छा घर से निवृत्त हो गयी हो, वही असली अनगार हो सकता है। वह इच्छा तभी निवृत्त हो सकती है जब प्रत्याख्यानावरण नाम चारित्रमोह कर्म का नाश हो जाए। बस, इस प्रकार जब घर की इच्छा निवृत्त होगी तब शेष परिग्रहों की इच्छा निवृत्त हो ही जाएगी, इसलिए परिग्रह के पूर्णत्यागी को ही अनगार कहना उचित है। अणु शब्द का अल्प अर्थ है। अल्प व्रत जिसको हों वह अगारी कहलाता है। व्रत अल्प होने पर भी पाँचों व्रत होने चाहिए, किन्तु वे व्रत पूर्ण नहीं धारण हो सके हैं, इसलिए अणु कहे जाते हैं। एक दो व्रत धारण कर लेने से अणुव्रती नाम प्राप्त नहीं होता यह समझने की बात है। सहायक व्रत : सात शील दिग्देशानर्थदण्डेभ्यो विरतिः समता तथा। स प्रोषधोपवासश्च संख्या भोगोपभोगयोः ॥ 80॥ अतिथेः संविभागश्च व्रतानीमानि गेहिनः। अपराण्यपि सप्त स्युरित्यमी द्वादश व्रताः॥ 81॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy