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________________ चतुर्थ अधिकार :: 189 वास्तव में देखा जाए तो पाँचों ही पाप जीवों के परिणाम विशेष हैं, अतएव वे ही आत्मा को बाँधने में कारण होते हैं । यहाँ परिग्रह भी वास्तविक वही समझना चाहिए कि जो परिणामों में ममता होती है। अब रही यह बात कि बाहरी धनधान्यादि को परिग्रह कहें या न कहें ? इसका उत्तर यह है कि बाह्य परिग्रह ममता बढ़ाने का कारण है, इसलिए उसे भी परिग्रह कहते हैं । यह कहना उपचाराधीन है। यहाँ भी प्रमाद को कारण समझ लेना चाहिए। वह प्रमाद यहाँ ममत्व संकल्प ही है, इसीलिए बाह्य परिग्रह कम रहने पर भी ममतावान जीव परिग्रही कहलाता है और अधिक परिग्रह भी किसी दूसरे कारण वश यदि इकट्ठा हो जाए, परन्तु ममता न हो तो वह मनुष्य अल्पपरिग्रही कहा जाएगा। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि बाह्य परिग्रह भी ममता को बढ़ाता है, इसलिए उसका भी सम्बन्ध हेय ही है । ये हिंसादि पाँचों पापों के लक्षण बताये। इनको त्याग देने पर भी आगामी भोगों की आकांक्षा बनी रहे अथवा मिथ्यात्व न छूटा हो अथवा मायाचार-कुटिलता न गयी हो तो व्रत कहना ठीक नहीं। देखो व्रती का लक्षण - माया-निदान- मिथ्यात्व - शल्याभाव-विशेषतः । अहिंसादिव्रतोपेतो व्रतीति व्यपदिश्यते ॥ 78 ॥ अर्थ — अहिंसादि व्रत धारण करने पर भी माया, निदान, मिथ्यात्व इनका पूर्ण नाश कर दे तभी मनुष्य का 'व्रती' यह नाम सार्थक होता है। माया - मिथ्या - निदान को शल्य कहा है, शल्य नाम काँटे का है। ये तीनों काँटों की तरह आत्मा को दुखाते हैं । माया का अर्थ निकृति, वंचना, ठगई ऐसा होता है। मिथ्यात्व लिख चुके हैं । निदान – अप्राप्त विषयभोग सम्बन्धी वस्तुओं की चाहना है। ये शल्य ऐसे हैं कि व्रत का कुछ फल प्राप्त नहीं होने देते, इसीलिए व्रती को इन्हें दूर करने का उपदेश दिया गया है। ये शल्य दूर न हों तो व्रत नाममात्र के लिए होंगे, क्योंकि व्रतों से जो परिणाम निर्मल व निष्पाप होने चाहिए, वे शल्य हटाने से ही हो सकते हैं। प्रश्न- माया कषाय और माया शल्य, निदान शल्य और निदान बन्ध तथा मिथ्या शल्य और मिथ्यात्व_ इनमें क्या अन्तर हैं? उत्तर -माया कषाय औदयिकभाव है तथा नौंवे गुणस्थान तक चलती है, यह कषाय रूप होने के कारण उदय भाव को प्राप्त होने से माया कषाय कहलाती है। उसके उदय से जीव उस माया रूप परिणत हो, यह आवश्यक नहीं है, लेकिन माया शल्य के भावों में दूसरों को संकल्पपूर्वक ठगने आदि की योजना निरन्तर परिणामों में चलती है, अतः इसे माया शल्य कहते हैं । निदान शल्य का स्वामी चौथे गुणस्थान तक एवं निदान बन्ध का स्वामी पाँचवें गुणस्थान तक होता है। क्योंकि निदान शल्य भावों में होता है । अभाव से सद्भाव प्राप्त करने के संकल्प को निदान शल्य कहते हैं । निदान बन्ध भव का होता है, इसमें 1. बाह्याभ्यन्तरोपधिसंरक्षणादि व्यापृतिर्मूर्च्छा । वातपित्तश्लेष्मविकारप्रसंग इति चेन्न विशेषितत्वात् । - रा. वा. 7/17, वा. 1-2 2. बाह्यस्याऽप्रसंग इति चेन्नाध्यात्मिक प्रधानत्वात् तस्मिन् संगृहीतेतत्कारणस्याप्यनुषंगेण प्रतीतेः । मूर्च्छाकारणत्वाद्बाह्यस्य मूर्छाव्यपदेशः - रा.वा. 7/17, वा. 3-4 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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