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________________ चतुर्थ अधिकार :: 175 शीलवतानतीचारो नित्यं संवेगशीलता। ज्ञानोपयुक्ताभीक्ष्णं समाधिश्च तपस्विनः ॥ 50॥ वैयावृत्त्यमनिर्वाणि: षड्विधावश्यकस्य च। भक्तिः प्रवचनाचार्यजिनप्रवचनेषु च ॥51॥ वात्सल्यं च प्रवचने षोडशैते यथोदिताः। नाम्नः तीर्थकरत्वस्य भवन्त्यात्रवहेतवः॥ 52॥ अर्थ-तीर्थकरत्व नामक शुभ नामकर्मास्रव के सोलह कारण हैं। उनमें से प्रथम का नाम दर्शनविशुद्धि है। सम्यग्दर्शन की निर्मलता होने से कभी किसी जीव के कषाय ऐसे मन्द हो जाते हैं कि जो तीर्थंकरत्व के बन्ध के लिए कारण हो सके। दर्शनविशुद्धि का साधारण शब्दार्थ यही होता है कि सम्यग्दर्शन की विशुद्धि हो, परन्तु सम्यग्दर्शन के सम्बन्ध से होनेवाली एक विशिष्ट कषायविशुद्धि ऐसा तात्पर्यार्थ लेना चाहिए। जैसे कि वचन कर्म को योग कहते हैं, परन्तु वचन द्वारा होनेवाला आत्मकर्म ही योग लिया जाता है, क्योंकि वचन, केवल कार्यकारी नहीं हो सकता है। जो आत्मा में बन्धास्रव होगा वह आत्मा की चंचलता से, न कि किसी केवल पुद्गल के निमित्त से। बस, इसी प्रकार बन्ध का कारण कहीं भी हो कषाय ही होगा न कि सम्यग्दर्शन'। जो सम्यग्दर्शन आत्मा को बन्ध से छुड़ानेवाला है वही बन्ध का कारण कैसे हो सकता है ? तीर्थंकर कर्म चाहे कितना ही उत्तम हो, परन्तु है तो बन्धन? इसलिए दर्शनविशुद्धि का अर्थ दर्शन सहभावी कोई रागांश ही करना ठीक है। उनका उदाहरण श्री अकलंकदेव ऐसा करते हैं कि जिनोपदिष्ट निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग में रुचि होने का नाम 'दर्शनविशुद्धि' है। शंकादि दोष हट जाने से वह रुचि विशुद्ध या निर्मल होती है। 2. दूसरा कारण 'शक्त्यनुसार तप" है। यह तप ऐसा करना चाहिए कि मोक्षमार्ग से विपरीत न हो और न शक्ति से अधिक या हीन हो। 3. तीसरा कारण 'शक्त्यनुसार त्याग' है। ___4. चौथा कारण 'मार्ग प्रभावना' है। ज्ञान के माहात्म्य से, तपश्चरण के द्वारा, जिनपूजा करके धर्म को प्रकाशित करना सो मार्ग प्रभावना है। इससे उत्तम प्रभावना 'आत्म प्रभावना है जो रत्नत्रय के तेज से देदीप्यमान किये जाने पर सर्वोत्कृष्ट फल को प्रदान करती है। 5. पाँचवाँ 'विनय सम्पत्ति' कारण है। विनय से परिपूर्ण रहना सो ‘विनय सम्पत्ति' है। वह विनय किसका? ज्ञानादिगुणों का तथा ज्ञानादिगुण युक्तों का-इनमें आदर उत्पन्न होना सो विनय है। कषाय को कृष कर देने से भी विनय होता है। 1. येनांशेन सुदृष्टिस्तेनाशेनास्य बन्धनं नास्ति। येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ।-पु.सि., श्लो. 212 2. अनिगृहितवीर्यस्य मार्गाविरोधिकायक्लेशस्तपः-रा.वा. 6/24, वा. 17 3. आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव। दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयैश्च जिनधर्मः॥ पु.सि.,श्लो. 30। ज्ञानतपोजिनपूजाविधिना ___ धर्मप्रकाशनं मार्गप्रभावनम्।-रा.वा. 6/24, वा. 12 4. ज्ञानादिषु तद्वत्सु चादरः कषायनिवृत्तिर्वा विनयसम्पन्नता।-रा.वा. 6/24, वा. 2 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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