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________________ 152 :: तत्त्वार्थसार वैसे उनके परमाणु टूटने पर वह एक-एक शक्ति अव्यक्त होती जाती है। ऐसा होते-होते परमाणुदशा प्राप्त होने तक कार्यकारिणी सर्व शक्तियाँ दब जाती हैं। उस समय परमाणु केवल सत्ता की दशा धारण करता है। उसमें कुछ भी उस समय पर वस्तु को हलाने चलाने की तथा परिवर्तन करने की योग्यता नहीं रहती है, इसीलिए उस समय एक परमाणु की जगह यदि दूसरे अनन्तों परमाणु आ जायें तो भी एक-दूसरे में बाधा नहीं होती है। एक ही स्थान में वे सर्व रह सकते हैं। केवल मूर्त या स्थूल पदार्थ में ही एक-दूसरे को बाधित करने की योग्यता रहती है। परमाणु अमूर्त नहीं माना गया है, परन्तु स्थूल भी नहीं माना गया है। इसीलिए परमाणुओं में बाधक या घातक शक्ति नहीं रह सकती है। किसी का घात या बाँध करना—यह एक विकारी स्वभाव है। शुद्ध पदार्थ किसी को भी बाधित नहीं करता और न कर ही सकता है। वह पुद्गल की पूर्ण शुद्धावस्था रूप परमाणु है।। कितने ही लोगों को इस बात को सनकर सन्तोष नहीं होता कि एक-एक स्थान में अनेक-अनेक परमाणु भी आकर रह सकते हैं और वे बद्ध होकर भी रह सकते हैं तथा जुदे होकर भी रह सकते हैं। ऐसी समझ होने का कारण यह होता है कि अपने देखने व अनुभवने में सदा विकारी स्थूल पर्याय ही आते हैं। बस, वैसा ही स्वभाव हम परमाणु का समझ बैठते हैं। अर्थात् परमाणु कैसा भी सूक्ष्म हो, वह थोड़ी-सी जगह तो घेरेगा ही, यह हमारी समझ रहती है, परन्तु यह समझ ठीक नहीं है। हम लिख चुके है कि परमाणु केवल एक सूक्ष्म अंश का ही नाम नहीं है, किन्तु कार्यकारिणी जितनी शक्तियाँ हैं उनके पूर्ण अव्यक्त या तिरोधान होने का नाम परमाणु है। दूसरे में आघात करना तथा दूसरे का आघात भोगना, यह एक अशुद्धता का कार्य है, इसलिए जो आघात करता है या सहता है वे दोनों ही अशुद्ध पर्याय होने चाहिए। अशुद्धता इतर संयोग के बिना होती नहीं है। तो फिर शुद्ध परमाणु में आघात होना और दूसरे को करना किस प्रकार सम्भव हो सकता है? इसी प्रकार चाहे इतरसंयोगी कुछ शुद्ध स्कन्ध पर्यायों में आघातता शक्ति प्रकट हो जाती हो, परन्तु उसकी भी कुछ सीमा है। वह यावत् स्कन्धों में नहीं होती है। आघातता व स्थूलता का अविनाभाव सम्बन्ध हो सकता है, इसलिए जब तक स्कन्धों की सूक्ष्मता नहीं जाती जब तक आघातता भी उत्पन्न नहीं होती। देखो, आघातता अनेक प्रकार की अशुद्धताओं में से एक अशुद्धता है, इसलिए व्यणुक से अशुद्धता का प्रारम्भ हुआ कि आघातता भी उत्पन्न हो गयी ऐसा नियम भी नहीं हो सकता है। व्यणुक में एक किसी प्रकार की अशुद्धता उत्पन्न होगी, त्र्यणुक में दूसरे प्रकार की, चतुरणुक में तीसरे प्रकार की। इसी प्रकार जैसे-जैसे परमाणु संख्या बढ़ती जाती है वैसे-वैसे ही अशुद्धताओं की संख्या भी बढ़ती जाती है। कोई-कोई अशुद्धता परमाणु संख्या बढ़ने पर दब भी जाती है। अशुद्धताओं की उत्पत्ति का परमाणु संख्या के साथ कोई नियम तो बनाया नहीं जा सकता। हाँ, इतना कह सकते हैं कि अनेकों अशुद्धताओं के लिए परमाणु भी अनेकों ही लगते हैं। समान आकृति और उतना ही वजन रहने पर भी जो एक स्कन्ध 1. परमाणु को भी मूर्तत्व-गुणयुक्त मानते हैं परन्तु वह केवल इसलिए कि मूर्त व्यणुकादिकों का वह उत्पादक है और व्यणुकादिकों में से ही टूट-फूटकर निकलता है। अर्थात् उसके पूर्वोत्तर कारण-कार्य मूर्तिक हैं इसलिए वह भी मूर्तिक है। यह एक प्रकार का उपचार सिद्ध धर्म हुआ। 2. अविभागी पुद्गलपरमाणुः स्वभावद्रव्यव्यञ्जनपर्यायः। -आ.प. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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