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________________ 18 :: तत्त्वार्थसार वे कारण परमाणु हैं। जब कारण परमाणु का एक गुण स्निग्धता या रूक्षता रूप होने से सम या विषमबन्ध के अयोग्य ऐसा जघन्य परमाणु है। एक गुण स्निग्धता या रूक्षता के ऊपर दो गुणवाले और चारगुण वाले का समबन्ध होता है तथा तीन गुणवाले का और पाँच गुणवाले का विषमबन्ध होता है, यह उत्कृष्ट परमाणु हैं।" यह जीव. प्रथम शक्लध्यान पृथक्त्व वितर्क वीचार की भूमिका में द्रव्यपरमाणु एवं भावपरमाणु का पृथक्त्वरूप यान करता है। द्रव्यपरमाण से द्रव्य की सुक्ष्मता एवं भावपरमाण से भाव की सूक्ष्मता कही गयी है। भाव शब्द से उन्हीं जीवद्रव्य का स्वसंवेदन परिणाम ग्रहण करना चाहिए। उनके भाव का परमाणु अर्थात् रागादि विकल्परहित सूक्ष्मावस्था है, क्योंकि वह इन्द्रिय और मन के विकल्पों का विषय नहीं है।" भावपरमाणु के क्षेत्र की अपेक्षा तो एक प्रदेश है। व्यवहार काल का एक समय है और भाव की अपेक्षा एक अविभागी प्रतिच्छेद है। वहाँ द्रव्यपुदगल के गुण की अपेक्षा तो स्पर्श, रस, गन्ध तथा वर्ण के परिणमन का अंश लीजिए तथा जीव के गुण की अपेक्षा ज्ञान का तथा कषाय का अंश लीजिए। ऐसे द्रव्य परमाणु (पुद्गल परमाणु) एवं भाव परमाणु (एक अविभागी प्रतिच्छेद) यथासम्भव समझना चाहिए। ___ द्रव्यपरमाणु को चौकोरपने की सिद्धि तो आकाश प्रदेश के द्वारा सिद्ध है, लेकिन भावपरमाणु का आकार कैसा है यह समझना है। जहाँ-जहाँ भावपरमाणु की परिभाषाएँ हैं, उनके विश्लेषण से भावपरमाणु का माप-आकार निकल सकता है। प्रथम, परमात्मप्रकाश की टीकानुसार, "भाव शब्द से उस ही आत्म द्रव्य का स्वसंवेदन परिणाम ग्रहण करना चाहिए।" यहाँ स्वसंवेदन का अर्थ मतिज्ञान लेना, क्योंकि स्वसंवेदन, मतिज्ञान का ही पर्यायवाची नाम है। इस भावपक्ष में भी ध्यान देने योग्य बात यह है कि आचार्यों ने आत्मद्रव्य लिया है, आत्मतत्त्व नहीं। अतः जब इस जीवद्रव्य की सबसे छोटी पर्याय, सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव के मरण के तीसरे समय में सबसे जघन्य अवगाहना होती है, जिसका आकार गोल होता है, अतः आत्मद्रव्यगत ज्ञान का आकार भी तदाकार ही होगा, जिससे भावपरमाणु संयोगी अवस्था में गोल कहा जाता है। दूसरा, भावपरमाणु इन्द्रिय और मन के विकल्पों का विषय नहीं है। इस कथन के अनुसार जीव के जब विग्रहगति में कार्मण काययोग होता है तब उस जीव के इन्द्रिय और मन का सम्पर्क नहीं होता है, क्योंकि कार्मण शरीर निरुपभोग होता है अर्थात् इन्द्रिय और मन के विषयों को ग्रहण नहीं करता है। ऐसे (संयोगी अवस्था में) जीव के, उस विग्रहगति के तीसरे समय की सूक्ष्मावस्था में कार्मणशरीर के साथ सबसे जघन्य अवगाहना गोल होती है। तीसरा, राजवार्तिककार के कथनानुसार भावपरमाणु को, जीव के गुण अपेक्षा ज्ञान का तथा कषाय का अंश लिया है। इस अपेक्षा से भी सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यापर्याप्तक जीव के तीसरे समय में जो जघन्य गोल अवगाहना होती है, वहाँ ज्ञान एवं कषाय के जघन्य अंश होते हैं, अत: जिनसेनाचार्य द्वारा कथित जिस परमाणु का आकार गोल सिद्ध होता है वह भावपरमाणु है। 38. पं. का., गा. 80, ता. वृ. 39. नि.सा., गा. 25, ता. वृ. 40. सर्वा. सि., वृ. 906 41. पर. प्र., टी. 42. रा.वा., अ. 9., सू. 27, वा. 733 43. तत्त्वा.सा., अ. 1, श्लो. 19/श्लो. वार्ति. भा. 1 44. धव. पु. 11/4, 2, 53 20/34/8 45. तत्त्वा . सू., अ. 2, सू. 44 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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