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________________ 130 :: तत्त्वार्थसार स्कन्ध-परमाणु बनने का कारण भेदात्तथा च संघातात् तथा तदुभयादपि।' उत्पद्यन्ते खलु स्कन्धा भेदादेवाणवः पुनः ।। 58॥ अर्थ-स्कन्धों में से कुछ की उत्पत्ति फूटने पर होती है, कुछ की जुड़ने पर होती है और कुछ की उत्पत्ति होने में फूटना और जुड़ना-ये दोनों ही बातें लगती हैं, परन्तु परमाणु सदा फूटने पर ही उत्पन्न होता है। संयोग से उसकी उत्पत्ति कभी नहीं होती; क्योंकि, यदि जघन्य से जघन्य पुद्गल का भी संघात हुआ तो दो अणु तो अवश्य ही इकट्ठे हो जाएँगे और दो अणु एकत्र हुए कि वह स्कन्धों की श्रेणी में आ जाएगा। इस प्रकार संघात होने पर पुद्गल में परम अणु अवस्था रहना कठिन है, इसलिए परमाणु की उत्पत्ति का कारण भेद होना ही है। वह भेद अन्तिम भेद होगा। बीच में भेद ऐसे भी होते हैं जो कि स्कन्धों के ही देश, प्रदेश बनाते हैं। __ अब रहे स्कन्ध, उनकी उत्पत्ति तीन तरह से होती है : 1. कोई एक स्कन्ध फूटने-टूटने पर दो स्कन्ध जो तैयार होंगे वे भेदपूर्वक हुए कहलाएँगे। 2. दो स्कन्ध अथवा दो परमाणु जुड़ जाने पर जो एक स्कन्ध होगा उसे संघातपूर्वक हुआ मानना चाहिए। इसी प्रकार दो से अधिक परमाणु या स्कन्धों का मेल होने पर भी जो स्कन्ध तैयार होते हैं वे सब संघातपूर्वक हुए ही माने जाते हैं। 3. स्थूल सूक्ष्मादि विसदृश दो स्कन्धों का जब मेल होता है तो पूर्ण मेल नहीं होता। निर्बल एक स्कन्ध दूसरे सबल स्कन्ध में पर्णतया मिल नहीं सकता। उस समय निर्बल का कछ अंश फुट-टकर जदा रह जाता है और कुछ मिल जाता है। इस प्रकार वहाँ जो तृतीय स्कन्ध उत्पन्न होता है वह भेद व संघात–इन दोनों की क्रिया से होता है। ऐसे ही स्कन्धों को भेद-संघातपूर्वक उत्पन्न माना जाता है। जब ये भेद-संघात दोनों एकदम हों तभी दोनों को जुदा कारण मानना चाहिए। जब भिन्न-भिन्न समयों में भेद और संघात, ये दोनों हों तो उस क्रिया को भेद और संघात में से एक कारणजन्य ही मानना ठीक है। इस प्रकार स्कन्धों की उत्पत्ति के तीन कारण जुदे-जुदे कहे गये हैं। परमाणु का लक्षण एवं विशेषता आत्मादिरात्म-मध्यश्च तथात्मान्तश्च नेन्द्रियैः। गृह्यते योऽविभागी च परमाणुः स उच्यते॥59॥ सूक्ष्मो नित्यस्तथान्त्यश्च कार्यलिंगस्य कारणम्। एकगन्ध-रसश्चैकवर्णो द्विस्पर्शकश्च सः॥ 60॥ 1. अन्यतो भेदेन अन्यस्य संघातेनेत्येवं भेदसंघाताभ्यामेकसमयिकाभ्यां द्विप्रदेशादयः स्कन्धा उत्पद्यन्ते।-सर्वा.सि., वृ. 576 2. भेद व संघात को जब जुदा-जुदा कारण मान लिया है तो भेद-संघात जो एक समयवर्ती होंगे वे भी उक्त दो कारणों में गर्भित हो सकते हैं, परन्तु एक समयवर्ती दोनों को ही वहाँ कारण मानना चाहिए। वहाँ किसी एक को कारण मानना ठीक नहीं है। ऐसा इस तृतीय भेद को जुदा गिनाने का प्रयोजन है। जैसे लोहे की हथौड़ी से हमने गिट्टी को फोड़ा अर्थात् पत्थर पर हथौड़ी लगते ही पत्थर के दो टुकड़े हुए, परन्तु उन दोनों टुकड़ों के साथ लोहे के परमाणु चिपककर मिल गये जिससे संघात हुआ, अतः यह तीसरा भेद, भेद-संघात कहलाता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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