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________________ प्रस्तावना :: 15 आकाश द्रव्य की अवगाहन शक्ति असीम है। लोकाकाश के एक प्रदेश में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म एवं काल के प्रदेशों को अवगाहन प्रदान करने की सामर्थ्य है। जैसे-कोई एक व्यक्ति किसी जंगल में से एक हजार प्रकार की वनस्पतियों के एक-एक पत्ते लाकर उनका काढ़ा बनाए एवं उस काढ़े में से एक सुई की नोंक के बराबर काढ़ा बाहर निकाले तो उस सुई की नोंक के बराबर काढ़े में एक हजार प्रकार की वनस्पतियों का सत्त्व (अस्तित्व) है। ठीक इसी प्रकार दश हजार, पचास हजार, एक लाख आदि प्रकार की वनस्पतियों के पत्ते को काढ़े में उबालें, उसमें भी एक सुई की नोंक के बराबर काढ़े में दस हजार, पचास हजार, एक लाख आदि प्रकार की वनस्पतियों का सत्त्व रहते हुए भी उस सुई की नोंक के बराबर काढ़े का न तो कोई आकार बढ़ता है न वजन बढ़ता है। ठीक इसी प्रकार से आकाश के एक प्रदेश पर कर्मों की अनन्तानन्त वर्गणाएँ समा जाती हैं। यह सब आकाशद्रव्य के अवगाहन गुण का प्रभाव है। आगम में ऊँटनी के दूध एवं शहद का दृष्टान्त अवगाहन शक्ति के लिए दिया है। जैन दर्शन में अचेतन एवं मूर्तिक पदार्थ को पुद्गल कहा गया है। जिस द्रव्य में पूरण-गलन, संयोजन-विभाजन हो सके वही पुद्गल द्रव्य है। पुद्गल के सरल या आणविक और स्कन्ध या यौगिक दो आकार होते हैं। जब किसी पौद्गलिक वस्तु का विभाजन किया जाता है तब अन्त में एक ऐसी अवस्था आती है, जहाँ वस्तु का अन्य और कोई विभाजन सम्भव नहीं होता है, इसी अविभाज्य अंश को अणु कहा जाता है। भेद, संघात एवं भेद-संघात से स्कन्ध की उत्पत्ति होती है। स्कन्ध के भेद करने से भी स्कन्ध बनता है। अनेक अणुओं के संघात (मिलने) से स्कन्ध बनता है, परन्तु भेद-संघात से भी स्कन्ध बनता है। जैसेलोहे की हथौड़ी से जब पत्थर तोड़ते हैं तब पत्थर के टूटने से भेद तो हो जाता है, साथ ही लोहे की हथौड़ी का अंश पत्थर के टुकड़ों के साथ ही संघात (चिपक) हो जाता है। मूर्तद्रव्य में आठ प्रकार का स्पर्श, पाँच प्रकार के रस एवं वर्ण तथा दो प्रकार की गन्ध होती है। जीव की प्रत्येक क्रिया पुद्गल के रूप में अभिव्यक्त होती है अर्थात् पुद्गल से इन्द्रिय अनुभव की सभी वस्तुएँ बनी हैं, जिनमें प्राणियों के शरीर, वचन तथा मन भी सम्मिलित हैं। इससे सिद्ध होता है कि जीव तत्त्व, पुद्गल द्रव्य के आधार से संसार में परिभ्रमण करता है, जिसे कर्म कहते हैं। शब्द, बन्ध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, भेद, तम, छाया, उद्योत एवं आतप ये पुद्गल द्रव्य की दश पर्यायें हैं।" शब्द-शब्द के अनेक भेद-प्रभेद होते हैं, लेकिन शब्द में पुद्गल के स्पर्श, रस, गन्ध एवं वर्ण गुण होते हैं। इसे वैचारिक युक्ति से समझ सकते हैं। शब्द का उद्गम स्थल रसना है लेकिन कर्णेन्द्रिय के द्वारा उसका वेदन होता है। 25. द्र.सं., गा. 27 26. तत्त्वा .सू., अ. 5, सू. 5 27. तत्त्वा .सू., अ. 5, सू. 25 28. तत्त्वा .सू., अ. 5, सू. 27 29. तत्त्वा .सू., अ. 5, सू. 26 30. तत्त्वा .सू., अ. 5, सू. 19-20 31. द्र.सं., गा. 16 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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