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110 :: तत्त्वार्थसार
व व्यय का कालभेद मानना मानो व्यय के समय वस्तु का अभाव कर देना है, परन्तु सत् का अभाव मानना न्यायविरुद्ध है। अतएव ऐसा मानना ठीक होगा कि जब किसी वस्तु में किसी पूर्वावस्था का व्यय होता है तभी उत्तरावस्था का उत्पाद होता है। इस प्रकार उत्पाद, व्यय को युगपत् मानना युक्तियुक्त हुआ। सूक्ष्म परिवर्तन की तरफ देखें तो कुछ-न-कुछ सदा ही परिवर्तन होना सिद्ध होगा, इसलिए वस्तु का उक्त लक्षण त्रिकालाबाधित है।
उत्पाद का लक्षण
द्रव्यस्य स्यात् समुत्पादश्चेतनस्येतरस्य च।
भावान्तर-परिप्राप्तिर्निजां जातिमनुज्झतः॥6॥ अर्थ-चेतन अथवा अचेतन किसी पदार्थ में किसी उत्तर अवस्था का प्रादुर्भाव होना–यही द्रव्य का उत्पाद है। प्रत्येक उत्पाद के होते हुए भी पूर्वकाल से चला आया हुआ जो स्वभाव या स्वजाति है वह कभी छूट नहीं सकती, इसीलिए जैन सिद्वान्त के अनुसार जो उत्पाद होता है वह बौद्धों के उत्पाद की तरह निरन्वय नहीं है।
व्यय का लक्षण
स्वजातेरविरोधेन द्रव्यस्य द्विविधस्य हि।
विगमः पूर्वभावस्य, व्यय इत्यभिधीयते॥7॥ अर्थ-स्वजाति या मूल स्वभाव को नष्ट न करते हुए जो चेतन-अचेतन वस्तुओं में पूर्वावस्था का विनाश होना है वही व्यय समझना चाहिए। बौद्ध सर्वथा नाश मानते हैं, वे लोग मूल स्वभाव को कायम नहीं मानते, इसलिए वह जैन सिद्धान्त से विरुद्ध है। ध्रौव्य का लक्षण
समुत्पादव्ययाभावो यो हि द्रव्यस्य दृश्यते।
अनादिना स्वभावेन तद् धौव्यं ब्रुवते जिनाः॥8॥ अर्थ-अनादि काल से लेकर कायम रहनेवाले मूल स्वभाव का जो व्यय एवं उत्पाद होता नहीं दिखता उसे जिन भगवान् ने ध्रौव्य कहा है। गुण-पर्याय के लक्षण
गुणो द्रव्यविधानं स्यात् पर्यायो द्रव्यविक्रिया।
द्रव्यं ह्ययुतसिद्धं स्यात् समुदायस्तयोर्द्वयोः॥9॥ अर्थ-किसी द्रव्य में शक्ति की अपेक्षा से भेद कल्पित करना, यही गुण-शब्द का अर्थ है। जैसे अखंड एक घट में रूप, रसादिक अनेक भेद ठहराना। यही घट की गुण-अवस्था समझनी चाहिए। द्रव्य में जो विकार उत्पन्न होता है अथवा जो अवस्था बदलती है-इसी का नाम पर्याय है। इन गुणपर्यायों
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