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________________ 102 :: तत्त्वार्थसार में खड़े रहकर जो इन्द्र की रक्षा करने को तैयार रहते हैं उन्हें आत्मरक्ष कहते हैं। 6. पुलिस की तरह दुष्ट का निग्रह करने की संभाल रखनेवालों को लोकपाल कहते हैं। 7. अनीक का अर्थ सैन्य है। 8. शहरों में रहनेवाले प्रजाजनों का नाम प्रकीर्णक है। 9. सेवा करनेवालों को आभियोग्य कहते हैं। 10. चांडालादिकों की तरह जो निम्नकोटि के माने जाते हैं उन देवों को किल्विषक कहते हैं। ये दश भेद जहाँ नहीं हैं उनका वर्णन ग्रैवेयाणि नवातोऽतो नवानुदिशचक्रकम्॥ 229॥ विजयं वैजयन्तं च, जयन्तमपराजितम्। सर्वार्थसिद्धिरित्येषां, पञ्चानां प्रतरोऽन्तिमः। 230॥ अर्थ-सोलह स्वर्गों के ऊपर ग्रैवेयक नामवाले नौ विमान अथवा नौ पटल हैं। उन नौ पटलों के ऊपर अनुदिश नामक पटल है। अनुदिश के ऊपर एक पटल और है-इस अन्तिम पटल में चारों दिशा की तरफ विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित ये चार नामवाले चार विमान हैं और एक सर्वार्थसिद्धि नाम विमान मध्य में है। यहाँ तक सब सठ पटल हैं-यह बात पहले भी कह चुके हैं। उन त्रेसठ पटलों का विवरण : एक समान आकाशभाग में सौधर्म ईशान जो दो कल्प हैं उनमें इकतीस पटल हैं-1. ऋतु, 2. विमल, 3. चन्द्र, 4. वल्गु, 5. वीर, 6. अरुण, 7. नन्दन, 8. नलिन, 9. कांचन, 10. रोहित, 11. चंचत्, 12. मारुत, 13. ऋद्धीश, 14. वैडूर्य, 15. रुचक, 16. रुचिर, 17. अंक, 18. स्फटिक, 19. तपनीय, 20. मेघ, 21. अभ्र, 22. हारिद्र, 23. पद्म, 24. लोहिताक्ष, 25. वज्र, 26. नन्द्यावर्त, 27. प्रभंकर, 28. पृष्टक, 29. गज, 30. मित्र, 31. प्रभ, ये नाम हैं। तीसरे-चौथे कल्प में सात पटल हैं-32. अंजन. 33. वनमाल, 34. नाग, 35. गरुड, 36. लांगल, 37. बलभद्र, 38. चक्र। पाँचवें-छठे कल्प में चार पटल हैं39. अरिष्ट, 40. देवसमित, 41. ब्रह्म, 42. ब्रह्मोत्तर । सातवें-आठवें कल्पों में दो पटल हैं-43. ब्रह्महृदय, 44. लान्तव। नौवें दशक कल्पों का एक पटल है-45. महाशुक्र । ग्यारहवें-बारहवें कल्पों का भी एक पटल है-46. सतार। तेरह-चौदह-पन्द्रह-सोलहवें चार कल्पों में छह पटल हैं-47. आनत, 48. प्राणत, 49. पुष्पक, 50. सातक, 51. आरण, 52. अच्युत । इसके ऊपर ग्रैवेयक के तीन भेदों में से अधोग्रैवेयक तीन पटल वाला है-53. सुदर्शन, 54. अमोघ, 55. सुप्रबुद्ध। पुनः मध्यम प्रैवेयक के तीन पटल हैं-56. यशोधर, 57. सुभद्र, 58. विशाल । उपरिम ग्रैवेयक के तीन पटल हैं-59. सुमन, 60. सौमन, 61. प्रीतिंकर हैं। इनके ऊपर एक अनुदिश नाम विमान है। उसका एक ही 62वाँ अनुदिश पटल है। 63वाँ सर्वार्थसिद्धि है। सोलहवें स्वर्ग तक जो बावन पटल हैं उनकी रचना इस प्रकार है-प्रत्येक पटल में तीन-तीन प्रकार के आवास हैं-1. इन्द्रक विमान, 2. श्रेणीबद्ध, 3. प्रकीर्णक। इन्द्रक विमान सबके बीच में रहता है और वह एक ही होता है। उसके चारों दिशाओं में विमानों की चार श्रेणी रहती हैं। प्रत्येक श्रेणी में प्रथम तो विमान संख्या त्रेसठ है, परन्त ऊपर-ऊपर प्रत्येक पटल की प्रत्येक श्रेणी में एक-एक विमान कम होता गया है। इस प्रकार बासठवें पटल में इन्द्रक विमान एक तथा चार दिशाओं में चार विमान श्रेणीबद्ध हैं। यहाँ तक जितनी श्रेणीबद्ध विमानों की हीनाधिक रचना है वैसी ही चार-चार विदिशाओं में हीनाधिक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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