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________________ विमान व पटलों के भेद द्वितीय अधिकार :: 101 ऊर्ध्वभागे हि लोकस्य, त्रिषष्टिः प्रतराः स्मृताः । विमानैरिन्द्रकैर्युक्ताः श्रेणीबद्धैः प्रकीर्णकैः ॥ 226 ।। अर्थ - लोक के ऊर्ध्वभाग में ये स्वर्ग अथवा कल्प हैं। इनके अन्तर्गत त्रेसठ पटल हैं । प्रत्येक पटल में एक-एक इन्द्रक विमान तथा कुछ श्रेणीबद्ध, व कुछ प्रकीर्णक नाम के विमान हैं। कल्पों के नाम Jain Educationa International सौधर्मेशान कल्पौ द्वौ तथा सानत्कुमारकः । माहेन्द्रश्च प्रसिद्धौ द्वौ ब्रह्म - ब्रह्मोत्तरावुभौ ॥ 227 ॥ उभौ लान्तवकापिष्ठौ शुक्र- शुक्रौ महास्वनौ । द्वौ सतार - सहस्त्रारावानतप्राणतावुभौ ॥ 228 ॥ आरणाच्युतनामानौ द्वौ कल्पाश्चेति षोडश । 1 अर्थ - प्रथम एक पटल में 1. सौधर्म और 2. ईशान ये दो कल्प उत्तर-दक्षिण दिशाओं में हैं इसी प्रकार ऊपर 3. सानत्कुमार और 4. माहेन्द्र कल्प हैं और ऊपर 5. ब्रह्म और 6. ब्रह्मोत्तर ये दो कल्प हैं । इसके भी ऊपर 7. लान्तव और 8. कापिष्ठ ये दो कल्प हैं। इसके ऊपर 9. शुक्र और 10. महाशुक्र दो कल्प हैं । इसके ऊपर 11. सतार और 12. सहस्रार ये दो कल्प हैं। इसके ऊपर 13. आनत और 14. प्राणत ये दो कल्प हैं। इसके ऊपर 15. आरण और 16. अच्युत ये दो कल्प हैं । ये सब मिलकर सोलह कल्प होते हैं । कल्पों की अपेक्षा ये सोलह भेद होते हैं, परन्तु इन सोलहों के स्वामी इन्द्र सब बारह हैं, इसलिए बारह भेद भी कह सकते हैं- 1. सौधर्म कल्प का स्वामी सौधर्मेन्द्र है। 2. ईशान कल्प का ईशानेन्द्र है । 3. सनत्कुमार का सानत्कुमार इन्द्र है । 4. महेन्द्र का माहेन्द्र इन्द्र है । ऊपर 5. ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर इन दो कल्पों का ब्रह्मेन्द्र है । इसके ऊपर के 6 लान्तव और कापिष्ठ इन दो कल्पों का लान्तवेन्द्र है । फिर 7. शुक्र, महाशुक्र इन नौवें, दशवें दो कल्पों का एक शुक्रेन्द्र है। 8. ग्यारहवें, बारहवें दो कल्पों का एक सतार नाम इन्द्र है। 9. आगे तेरहवें आनत कल्प का एक आनत नाम इन्द्र है । 10. चौदहवें प्राणत कल्प ATT प्राणत नाम इन्द्र है । 11. पन्द्रहवें आरण कल्प का आरण नाम इन्द्र है । 12. सोलहवें अच्युत कल्प का एक अच्युत नाम इन्द्र है। यहाँ तक चारों देवों के भेदों में इन्द्र, सामानिकादि की कल्पना है, आगे फिर यह कल्पना नहीं है । इन्द्रादि दश भेदों के अर्थ इस प्रकार हैं : (1) इन्द्र अर्थात् सबका स्वामी । (2) इन्द्र के तुल्य सुख भोगनेवाले कुछ देव होते हैं, जो कि माता-पिता आदि के समान माने जाते हैं उन्हें सामानिक देव कहते हैं। तो भी उनकी आज्ञा इन्द्र के समान नहीं रहती और न सैन्यादि का ऐश्वर्य ही उतना रहता है । 3. मन्त्री - पुरोहितादि के तुल्य प्रत्येक इन्द्र के पास तैंतीस देव रहते हैं उन्हें त्रायस्त्रिश कहते हैं । 4. इन्द्र की सभा में जिनका बैठने का नियोग होता है वे पारिषद अथवा सभासद कहलाते हैं । 5. इन्द्र की बाजुओं For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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