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________________ 94 :: तत्त्वार्थसार अर्थ-पुष्करद्वीप के ठीक बीच में एक मानुषोत्तर नाम का पर्वत है। वह भी उस द्वीप के समान कंकणाकार सर्वत्र पड़ा हुआ है। उस पर्वत के भीतर की तरफ में ही मनुष्य हैं, इसीलिए उसको मानुषोत्तर कहते हैं। उसके आगे मनुष्यों का गमन नहीं होता। और तो और, विद्याधर तथा ऋद्धिधारी ऋषि भी उसके आगे नहीं जा सकते हैं। पर्वतक्षेत्रादिकों की रचना भी इन पर्वत क्षेत्रों की-सी आगे नहीं है, आगे सर्वत्र भोगभूमि है। उन सभी द्वीपों में तिर्यंच रहते हैं। मनुष्यों के रहने के केवल अढ़ाई द्वीप और दो समुद्र-ये ही स्थान हैं। मनुष्यों के प्रकार आर्य-म्लेच्छविभेदेन द्विविधास्ते तु मानुषाः। आर्यखण्डोद्भवा आर्या म्लेच्छाः केचिच्छकादयः॥ म्लेच्छखण्डोद्भवा म्लेच्छा अन्तरद्वीपजा अपि॥ 212॥ (षट्पदम्) अर्थ- मनुष्य दो प्रकार के होते हैं-आर्य और म्लेच्छ। जिनमें उत्तर गुण तथा मोक्ष की प्रवृत्ति पाई जाती हो उन्हें आर्य कहते हैं और जिनमें ये बातें नहीं मिलतीं उन्हें म्लेच्छ समझने चाहिए। आर्यखंड में आर्य मनुष्य मिलते हैं। आर्यखंड के भीतर जो शक, भील आदि जातियाँ हैं वे म्लेच्छ हैं। पाँच म्लेच्छखंडों में जो रहते हैं वे म्लेच्छ ही हैं। इनके अतिरिक्त कुछ ऐसे स्थान भी हैं जहाँ म्लेच्छ रहते हैं। उन स्थानों को अन्तर्वीप कहते हैं। ___ अढ़ाई द्वीपों के बाजुओं में अन्तर्वीप हैं । लवणोद की आठ दिशाओं में आठ और आठ उनके एकएक अन्तराल में ऐसे सोलह हैं। हिमवान्, शिखरी ये दो आद्यन्त के वर्षधर-पर्वत तथा आद्यन्त क्षेत्रगत दो विजयार्थ पर्वत इन चारों पर्वतों की आठ टोंकों में आठ अन्तर्वीप हैं। लवणोद का उत्तर तीर व धातकीखंड की भीतरी वेदी इनमें भी चौबीस अन्तर्वीप हैं। चौबीस कालोद समुद्र के भीतरी तीर तथा धातकीखंड की बाहरी वेदी के बीच में भी अन्तर्दीप हैं। कालोद के बाहरी तीर तथा पुष्कर की भीतरी वेदी के बीच में भी चौबीस अन्तर्वीप हैं। सब मिलकर 96 अन्तर्वीप हैं। इन द्वीपों की सौ-सौ, पचासपचास योजन के करीब विस्तीर्णता है। इनमें रहनेवाले मनुष्य भोगभूमिज कहलाते हैं। एक टाँग, लम्बे कान, वानर, अश्वादिकों के-से मुख ऐसे उन मनुष्यों में, यहाँ के मनुष्यों में अनेक विचित्रताएँ मानी गई हैं। ये सभी म्लेच्छ कहलाते हैं। जो आर्यखंड के अतिरिक्त पाँच-पाँच खंड प्रत्येक क्षेत्र में भीतर रहते हैं वे भी म्लेच्छखंड ही हैं। आर्यखंड के अन्तर्गत जो जंगली जातियाँ हैं वे भी म्लेच्छ कहलाती हैं। आर्यपुरुष कई कारणों से आर्य कहलाते हैं : 1. क्षेत्र की अपेक्षा जो काशी आदि आर्यक्षेत्रों में रहते हैं वे क्षेत्रार्य कहलाते हैं। 2. इक्ष्वाकु आदि उत्तम कुलों में उत्पन्न होनेवाले मनुष्य जात्यार्य कहलाते हैं। 3. वाणिज्यादि जीविका कर्म करनेवाले संयमासंयमधारी गृहस्थ श्रावक, पूर्ण संयमी साधु-ये सब कार्य कहलाते हैं। जीविका करनेवाले सावद्यकर्मार्य हैं। श्रावक अल्पसावद्यकार्य हैं। साधु असावद्यकर्मार्य 1. नास्मादुत्तरं कदाचिदपि विद्याधरा ऋद्धिप्राप्ता अपि मानुषा गच्छन्ति अन्यत्रोपपादसमुद्घाताभ्याम्। ततोऽस्यान्वर्थसंज्ञा।-रा.वा., 3/35 जो मनुष्य होनेवाले जीव विग्रहगति में हों तथा केवल समुद्घात जिन्होंने किया हो वे मनुष्य कहलाकर भी बाहर मिल सकते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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