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________________ द्वितीय अधिकार :: 93 कालचक्र को अवसर्पिणी कहते हैं। इन दोनों कालों के प्रत्येक के छह-छह भेद किये गये हैं। पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवाँ और छठा ये काल जैसे क्रम से आते-जाते हैं, वैसे ही सर्व पदार्थों में ह्रास होता जाता है। आज उसी ह्रास का कारण पाँचवाँ काल है। छठा काल बीतने पर पुन: छठा, पाँचवाँ, चौथा, तीसरा, दूसरा, पहला-ऐसी वृद्धि होने लगती है। उस समय सभी वस्तुओं के परिवर्तन अधिक शक्ति वाले होते जाते हैं। इस ह्रास व वृद्धि का परिणाम भूमि पर भी हुए बिना नहीं रहता। भूमि की रचना यथावत् न रहकर उसमें बहुत उथल-पुथल होती रहती है। भरत तथा ऐरावत के सिवाय ऐसी हीनाधिकता दूसरे किसी भी क्षेत्र में नहीं होती। धातकीखंड और पुष्करार्ध का स्वरूप जम्बूद्वीपोक्तसंख्याभ्यो वर्षा वर्षधरा अपि। द्विगुणा धातकीखण्डे पुष्करार्धे च निश्चिताः ॥ 209॥ अर्थ-जम्बूद्वीप के चारों तरफ से घेरा देकर रहनेवाला लवणोदक का विस्तार किसी भी एक तरफ की समुद्र की बाहरी वेदी से लेकर बीच के जम्बूद्वीप में होकर दूसरी तरफ के समुद्रान्त तक यदि रेखा की जाए तो उसका पाँच लाख योजन प्रमाण होगा। उस लवणोद को घेरकर रहनेवाला धातकीखंड नाम द्वीप है। लवणोद से दूना व जम्बूद्वीप से चौगुना इसका विस्तार है। सूचीव्यास इसका तेरह लाख योजन का है। यहाँ जम्बूद्वीप तो सूर्यमंडल के अथवा थाली के समान गोल है, इसलिए इसके क्षेत्र पर्वत एक तरफ से दूसरी तरफ तक आगे-आगे पड़े हुए हैं, परन्तु धातकीखंड कंकण के समान बीच में खाली है, इसलिए इसमें जो रचना है वह सब तरफ है। रथ के पहिये में जैसे बीच-बीच में आरा रहते हैं वैसे इस द्वीप में पर्वत हैं। आराओं के बीच में जैसे खाली जगह रहती है वैसे पर्वतों के बीच-बीच में क्षेत्र हैं, इसीलिए इसका दृश्य ठीक पहिए के समान है। इस द्वीप में सब रचना जम्बूद्वीप की रचना से दूनी-दूनी है। यहाँ पर्वत बारह हैं। छह-छह पर्वतों के बीच एक-एक मेरु–इस प्रकार दो मेरु पर्वत हैं। क्षेत्र सब चौदह हैं। विदेह चौसठ हैं। बारह भोगभूमि हैं। धातकीखंड के आगे कालोद समुद्र है और उसके आगे का द्वीप पुष्कर द्वीप है। कालोद की चौड़ाई आठ लाख योजन तथा पुष्कर की सोलह लाख है। पुष्कर द्वीप के भीतर के आठ लाख योजन प्रमाण क्षेत्र में धातकीखंड के समान दो-दो हिमवदादि पर्वत तथा दो ही दो भरतादि क्षेत्र हैं। इसका सब स्वरूप धातकीखंड के समान है। आगे के आधे विभाग में ऐसी रचना क्यों नहीं है ? इस प्रश्न का उत्तर आगे है। मनुष्य क्षेत्र की सीमा पुष्करद्वीपमध्यस्थो मानुषोत्तरपर्वतः। श्रूयते वलयाकारः तस्य प्रागेव मानुषाः ॥ 210॥ द्वीपेष्वर्धतृतीयेषु द्वयोश्चापि समुद्रयोः। निवासोऽत्र मनुष्याणामत एव नियम्यते॥ 211॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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