SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 90 :: तत्त्वार्थसार अर्थ- - एक - एक पर्वत पर एक - एक तालाब है। पहले पर पद्म, दूसरे पर महापद्म, तीसरे पर तिगिंछ, चौथे पर केशरी, पाँचवें पर महापुंडरीक तथा छठे पर पुंडरीक – ये उनके नाम हैं। हृद व पुष्करों का परिमाण सहस्त्रयोजनायाम आद्यस्तस्यार्द्ध-विस्तरः । द्वितीय द्विगुणस्तस्मात् तृतीयो द्विगुणस्ततः ॥ 198 ॥ उत्तरा दक्षिणैस्तुल्या निम्नास्ते दशयोजनीम् । प्रथमे परिमाणेन योजनं पुष्करं हृदे ॥ 199॥ द्वि-चतुर्योजनं ज्ञेयं तद् द्वितीय - तृतीययोः । अपाच्यवदुदीच्यानां पुष्कराणां प्रमाश्रिता ॥ 200 ॥ अर्थ- सभी हृद (या तालाब ) पर्वतों के समान पूर्व पश्चिम दिशाओं की तरफ लम्बे हैं। पहले की लम्बाई एक हजार योजन है। उत्तर-दक्षिण की तरफ विस्तार, लम्बाई से आधा है इसलिए, पाँच सौ योजन है। दूसरे पर्वत पर का हृद पहले से दूना है। दूसरे से तीसरा दूना है। आगे के चौथे, पाँचवें, छठे हृद तीसरे, दूसरे व पहले के समान विस्तीर्ण तथा चौड़े हैं। इनकी दश योजन की गहराई रहती है। प्रथम हृद के बीच एक योजन का एक कमल है। बीच की कर्णिका दो कोश तथा आजू-बाजू दो पत्र एक - एक कोश के हैं, इसलिए उस पुष्प का एक योजन व्यास हो जाता । दूसरे हृद में का कमल दो योजन का व्यास वाला है। तीसरे में चार योजन का व्यास है । हृदों के समान कमल भी जो आगे के तीन हैं वे व्यास, विस्तार तथा गहराई में तीसरे, दूसरे, पहले के समान दूने - दूने हैं । कमलों पर निवासिनी देवियाँ - श्रीश्च ह्रीश्च धृतिः कीर्तिर्बुद्धि लक्ष्मीश्च देवताः । पल्योपमायुषस्तेषु पर्षत्सामानिकान्विताः ॥ 201॥ अर्थ - छहों हृदों के छहों मुख्य कमलों पर महल बने हुए हैं। उनमें क्रम से श्री, ही, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये छह देवियाँ रहती हैं। इनकी एक पल्य के प्रमाण आयु होती है। ये अपने स्थानों की स्वामिनी हैं। इनके पास सभासद तथा सामानिक ये दो प्रकार के आश्रित देव होते हैं । वे आसपास के शेष कमलों पर रहते हैं। ये वास्तव में कमल नहीं हैं, किन्तु कमलाकार हैं । Jain Educationa International महानदियों के नाम गंगासिन्धू उभे रोहितोहितास्ये तथैव च । ततो हरिद्धरिकान्ते शीता - शीतोदके तथा ॥ 202 ॥ स्तो नारी - नरकान्ते च सुवर्णार्जुनकूलिके । रक्तारक्तोदके च स्तो द्वे द्वे क्षेत्रे च निम्नगे ॥ 203 ॥ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy