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________________ द्वितीय अधिकार :: 81 बड़ा एक योजन मिलता है। पंचेन्द्रियों में शरीर की अवगाहना देवादि गतियों की जुदा-जुदा करके लिख ही चुके हैं। ये सभी बड़ी से बड़ी अवगाहनाएँ हैं। असंख्याततमो भागो यावानस्त्यगुलस्य तु। एकाक्षादिषु सर्वेषु देहस्तावान् जघन्यतः145॥ अर्थ-एकेन्द्रियादि पाँचों प्रकार के जीवों में सबसे छोटी शरीरावगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र तक होती है। यह अंगुल घनांगुल समझना चाहिए। नरकगति में गमनागमन की योग्यता घर्मामसंज्ञिनो यान्ति वंशान्ताश्च सरीसृपाः। मेघान्ताश्च विहंगाश्च अञ्जनान्ताश्च भोगिनः॥ 146॥ तामरिष्टां च सिंहास्तु मघव्यन्तास्तु योषितः। नरा मत्स्याश्च गच्छन्ति माघवीं तांश्च पापिनः ॥ 147॥ अर्थ-असंज्ञी जीव प्रथम घर्मा नरक तक जाकर उत्पन्न होते हैं। दूसरे वंशा नामक नरकपर्यन्त सरीसृप मरकर उत्पन्न होते हैं। मेघा नामक तीसरे नरकपर्यन्त पक्षी मर कर जा सकते हैं। चौथे अंजना नामक नरकपर्यन्त सर्प जाकर उत्पन्न हो सकते हैं। सिंह अरिष्टा नामक पाँचवें नरकपर्यन्त मरकर जाते हैं। स्त्री जाति के जीव मघवी नामक छठे नरकपर्यन्त मरकर उत्पन्न होते हैं। पापी पुरुष व मच्छ ये माघवी नामक सातवीं नरकभूमि-पर्यन्त मरकर उपजते हैं। नरकगति से जीवों के आगमन की योग्यता न लभन्ते मनुष्यत्वं सप्तम्या निर्गताः क्षितेः। तिर्यक्त्वे च समुत्पद्म नरकं यान्ति ते पुनः॥ 148॥ मळ्या मनुष्यलाभेन षष्ठ्या भूमेर्विनिर्गताः। संयमं तु पुनः पुण्यं, नाप्नुवन्तीति निश्चयः॥ 149॥ निर्गताः खलु पञ्चम्या लभन्ते केचन व्रतम्। प्रयान्ति न पुनर्मुक्तिं भावसंक्लेशयोगतः ॥ 150॥ लभन्ते निर्वृति केचिच् चतुर्थ्या निर्गताः क्षितेः। न पुनः प्राप्नुवन्त्येव पवित्रां तीर्थकर्तृताम्॥ 151॥ लभन्ते तीर्थकर्तृत्वं ततोऽन्याभ्यो विनिर्गताः। निर्गत्य नारकान्न स्युर्बलकेशवचक्रिणः॥ 152॥ अर्थ-सातवीं नरकभूमि से मरकर जीव मनुष्य पर्याय नहीं पा सकता है। वह तिर्यंचों में ही उत्पन्न होगा और वहाँ से मरकर एक बार पुनः वह नरक में जाता है। मघवी नाम छठी नरकधरा से मरकर आया हआ जीव मनुष्य हो सकता है. परन्त वह पवित्र संयम की आराधना करने योग्य विशद्ध नहीं हो पाता-यह निश्चय है। पाँचवें नरक से मरकर आये हए जीव मनष्य होते हैं व व्रतधारण करने योग्य विशुद्ध परिणाम भी कर सकते हैं, परन्तु इतनी विशुद्धता नहीं हो पाती कि क्षपक श्रेणी प्राप्त कर वे मुक्ति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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