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74 :: तत्त्वार्थसार
गर्भ व उपपाद जन्म के अतिरिक्त जिनका अनियत जन्म हो वे सभी सम्मूर्च्छन जन्मवाले कहलाते हैं। योनि प्रकरण
योनयो नव निर्दिष्टाः त्रिविधस्यापि जन्मनः॥ 105॥ सचित्त-शीत-विवृता अचित्ताशीत-संवृताः।
सचित्ताचित्त-शीतोष्णौ तथा विवृतसंवृतः॥ 106॥ अर्थ-तीनों प्रकार के जन्म जिनमें हों ऐसी योनियाँ बताई गयी हैं। 1. सचित, 2. शीत, 3. विवृत, 4. अचित, 5. उष्ण, 6. संवृत, 7. सचित्ताचित्त-मिश्र, 8. शीतोष्ण-मिश्र और 9. विवृत-संवृत मिश्र।
जीव-उत्पत्ति के स्थान का नाम योनि है। वह जीवयुक्त हो तो सचित्त कहना चाहिए। निर्जीव हो तो अचित्त कहना चाहिए। जिस स्थान का कुछ भाग जीव से युक्त हो और कुछ न हो उसे सचित्ताचित्तमिश्र कहते हैं। उत्पत्ति-स्थान कुछ शीत व कुछ उष्ण होते हैं और कुछ शीतोष्ण मिश्रित भी होते हैं। ढके हुए स्थान को संवृत और खुले स्थान को विवृत कहते हैं। कुछ स्थान ऐसे भी होते हैं जो कुछ खुले और कुछ ढके होते हैं। जन्मों के साथ योनियों का विभाग
योनि रकदेवानामचित्तः कथितो जिनैः। गर्भजानां पुनर्मिश्रः शेषाणां त्रिविधो भवेत्॥ 107 ॥ उष्णः शीतश्च देवानां नारकाणां च कीर्तितः। उष्णोऽग्निकायिकानां तु, शेषाणां त्रिविधो भवेत्॥ 108॥ नारकैकाक्षदेवानां योनिर्भवति संवृतः।
विवृतो विकलाक्षाणां मिश्रः स्याद् गर्भजन्मनाम्॥ 109॥ अर्थ-जिनेन्द्र भगवान् ने देव व नारकों की योनि अचित्त बतायी है। गर्भजों की योनि मिश्र है। शेष जीवों की योनि तीनों प्रकार की है। कुछ देव व नारकों की योनि शीत व कुछ की उष्ण होती है। अग्निकायिक जीवों की योनि उष्ण ही होती है। बाकी जीवों में किसी की उष्ण, किसी की शीत व किसी की शीतोष्णमिश्र रहती है। देव, नारक व एकेन्द्रिय जीवों की योनि संवृत रहती है। विकलेन्द्रियों की योनि विवृत रहती है। गर्भजों की योनि संवृत-विवृत की मिश्ररूप रहती है। योनियों के उत्तरभेद
नित्येतरनिगोदानां भूम्यम्भो-वात-तेजसाम्। सप्त सप्त भवन्त्येषां लक्षाणि दश शाखिनाम्॥ 110॥ षट् तथा विकलाक्षाणां मनुष्याणां चतुर्दश। तिर्यग्-नारक-देवानामेकैकस्य चतुष्टयम्॥
एवं चतुरशीतिः स्यात् लक्षाणां जीवयोनयः॥ 111॥ (षट्पदी) अर्थ-नित्यनिगोद, इतरनिगोद, भूमि, जल, वायु, अग्नि इनमें से प्रत्येक की सात-सात लाख योनि
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