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________________ द्वितीय अधिकार :: 73 है। इसमें चार समय व तीन मोड़े लगते हैं। कम से कम एक समय तो सभी गतियों में लगना ही चाहिए। एक के सिवाय जितने समय लगते हैं वे मोड़े के कारण लगते हैं। जिसमें जितने मोड़े लिये जाते हैं उतने ही उसमें अधिक समय खर्च होते हैं। गमन दिशा के अनुसार ही होता है, इसलिए जिसका उत्पत्तिस्थान दिशाओं की मर्यादा से जितनी जगह वक्र होगा उतने ही बार मोड़े लेने पड़ते हैं, परन्तु तीन वक्रता से अधिक वक्रता जहाँ हो ऐसा कोई स्थान नहीं है, इसीलिए तीन मोड़े से अधिक मोड़े लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। गमन में विलम्ब होने के कारण जो सम्भव हैं वे वहाँ पर नहीं रहते, इसलिए अधिक समय तक विग्रह-गति में रहना असम्भव है। अनाहारक की समय मर्यादा समयं पाणिमुक्तायामन्यस्यां समयद्वयम्। तथा गोमूत्रिकायां त्रीण्यनाहारक इष्यते॥ 102॥ अर्थ-जिसमें जितने मोड़े हों उसे उतने ही समय तक अनाहारक रहना पड़ता है, इसीलिए एक समयवाली गति में अनाहारक रहना नहीं पड़ता है। जिस समय विग्रहगति में रहता है उसी समय वह जाकर नवीन शरीर ग्रहण कर लेता है। एक मोड़े की गति में एक समयपर्यन्त अनाहारक, दो मोड़े की गति में दो समय तक अनाहारक, तीन मोड़ेवाली गति में तीन समय तक अनाहारक रहता है। इन तीनों गतियों में भी जो मोड़े के बाद अन्त का एक समय अधिक लगता है उसमें जीव अनाहारक नहीं रहता। जीवों के जन्म भेद त्रिविधं जन्म जीवानां सर्वज्ञैः परिभाषितम्। सम्मूर्च्छनात्तथा गर्भादुपपादात्तथैव च ॥ 103॥ अर्थ-कीड़े आदि बहुत से जन्तुओं का अनियमित स्थानों में चारों ओर से परमाणु इकट्ठे करके जन्म होता है, शरीर बन जाता है उसे सम्मूर्छन जन्म कहते हैं। कितने ही जीवों का गर्भ द्वारा जन्म होता है, उसे गर्भजन्म कहते हैं। 'उपपाद' यह जैन सिद्धान्त का रूढ़ शब्द है जिसका अर्थ है-देव व नारकों के उत्पत्ति-स्थान, इसलिए देव व नारकों का जन्म उपपाद जन्म कहना चाहिए। उसके अतिरिक्त कोई चौथा जन्म का प्रकार नहीं है-ऐसा जिन भगवान सर्वज्ञदेव ने बताया है। गर्भ व उपपाद जन्मवाले जीव भवन्ति गर्भजन्मान: पोताण्डज जरायुजाः। तथोपपाद जन्मानो नारकास्त्रिदिवौकसः॥ 104॥ स्युः सम्मूर्च्छन जन्मानः परिशिष्टास्तथापरे।। अर्थ- पोत, जरायुज, अंडज ये जीव गर्भज कहलाते हैं। जो जन्मते ही चलने फिरने लगें वे पोत हैं। उनके ऊपर जन्मते समय झिल्ली नहीं रहती, जैसे सिंह का बच्चा। झिल्ली के साथ जो जन्मते हैं वे जरायुज हैं। जो अंडे से पैदा हों वे अंडज हैं। देव, नारकी जीव उपपाद जन्मवाले माने जाते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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