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________________ द्वितीय अधिकार :: 49 के दो भेद हैं- स्वस्थान अप्रमत्तसंयत और सातिशय अप्रमत्तसंयत । जो सातवें से गिरकर छठे में आता है। और फिर सातवें में चढ़ता है वह स्वस्थान अप्रमत्तसंयत कहलाता है तथा जो श्रेणी चढ़ने के सन्मुख हो अधःकरण परिणामों को प्राप्त करता है वह सातिशय अप्रमत्तसंयत कहलाता है। जहाँ सम-समयवर्ती तथा भिन्न-समयवर्ती जीवों के परिणाम समान तथा असमान दोनों प्रकार के होते हैं उन्हें अधःकरण कहते हैं । इस गुणस्थान में भी नियम से देवायु का बन्ध होता है । आठवाँ : अपूर्वकरण गुणस्थान अपूर्व करणं कुर्वन् न पूर्वकरणो यतिः । शमकः क्षपकश्चैव स भवत्युपचारतः ॥ 25 ॥ अर्थ-करण का अर्थ परिणाम है । अपूर्व परिणाम प्रकट करता हुआ योगी अपूर्वकरण गुणस्थान वाला कहलाने लगता है। इसे उपचार से मोहोपशमक तथा मोहक्षपक भी कहते हैं । भावार्थ- - सप्तम गुणस्थान के सातिशय अप्रमत्तसंयत को जो अधः करणरूप परिणाम प्राप्त होते थे उनमें आगामी समयवर्ती जीवों के परिणाम पिछले समयवर्ती जीवों के परिणामों से मिलते-जुलते भी रहते थे, पर अष्टम गुणस्थानवर्ती जीव के विशुद्धता के बढ़ जाने से प्रत्येक समय अपूर्व - अपूर्व, नयेनये ही करण - परिणाम होते हैं । इस गुणस्थान में आगामी समयवर्ती जीवों के परिणाम पिछले समयवर्ती जीवों के परिणामों से मिलते-जुलते नहीं है, इसलिए इसका अपूर्वकरण यह सार्थक नाम है। इस गुणस्थान में समसमयवर्ती जीवों के परिणाम समान और असमान दोनों प्रकार के होते हैं तथा भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम नियम से भिन्न ही होते हैं । इस गुणस्थान से श्रेणी प्रारम्भ हो जाती है । चारित्रमोहनीय कर्म का उपशम या क्षय करने के लिए परिणामों की जो सन्तति होती है उसे श्रेणी कहते हैं । इसके दो भेद हैं- उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी । उपशम श्रेणी को द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव माँढ़ते हैं, परन्तु क्षपकश्रेणी को क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही माँढ़ते हैं । उपशम श्रेणी वाले उपशमक और क्षपकश्रेणी वाले क्षपक कहलाते हैं। इसलिए उपचार से इस गुणस्थान को भी उपशमक और क्षपक कहा गया है। यहाँ तथा इसके आगे किसी भी आयु का बन्ध नहीं होता । क्षपक श्रेणी माँढ़ने वालों के आयुबन्ध होता ही नहीं है और उपशमश्रेणी वे जीव ही माँढ़ते हैं जिन्हें या तो देवायु का बन्ध हो चुका है या किसी आयु का बन्ध नहीं हुआ है । जिन्हें किसी आयु का बन्ध नहीं हुआ है, वे पतन कर जब सप्तम या इसके नीचे के गुणस्थानों में आते हैं तब देवायु का बन्ध करते हैं। जिन जीवों के उसी पर्याय में उपशमश्रेणी के बाद क्षपक श्रेणी माँढ़ने का प्रसंग आता है वे भी आयु का बन्ध नहीं करते हैं । नौवाँ : अनिवृत्तिकरण गुणस्थान Jain Educationa International कर्मणां स्थूलभावेन शमकः क्षपकस्तथा । अनिवृत्तिरनिवृत्तिः परिणामवशाद् भवेत्॥26॥ अर्थ – शुक्लध्यान आदि चारित्ररूप परिणामों की उत्कृष्ट वृद्धि होने से अनिवृत्तिकरण नाम नौवाँ स्थान प्राप्त होता है। इस गुणस्थान वाला योगी मोहकर्म या कषाय के स्थूल अंशों का उपशम और क्षपण करता है । जो आठवें में उपशम का प्रारम्भ करता है वह यहाँ भी उपशम करता है और जो आठवें For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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