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________________ 48 :: तत्त्वार्थसार सम्यग्दृष्टि जीव के जब इस कषाय का क्षयोपशम होता है तब वह एकदेश संयम धारण करता है। एकदेश संयम में त्रसजीवों की संकल्पी हिंसा, स्थावर जीवों का निरर्थक घात, स्थूल असत्य, सार्वजनिक जल तथा मिट्टी आदि की चोरी, स्वस्त्री या स्वपुरुष-सेवन तथा सीमित परिग्रह से निवृत्ति नहीं होती। इसलिए यह एक ही काल में विरताविरत या संयतासंयत कहलाता है। यह गुणस्थान तिर्यंच और मनुष्यगति में ही होता है। इस गुणस्थान में भी नियम से देवायु का ही बन्ध होता है। जिस जीव के पहले देवायु को छोड़कर यदि किसी अन्य आयु का बन्ध हो गया हो तो उस जीव के उस पर्याय में यह गुणस्थान ही नहीं होगा। छठा : प्रमत्तसंयत गुणस्थान प्रमत्तसंयतो हि स्यात् प्रत्याख्याननिरोधिनाम्। उदयक्षयतः प्राप्तासंयमद्धिः प्रमादवान्॥23॥ अर्थ-प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से जो संयमरूप सम्पत्ति को प्राप्त होकर भी प्रमाद से युक्त रहता है वह प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती कहा जाता है। भावार्थ-प्रत्याख्यान-सकलचारित्र को घातनेवाली कषाय प्रत्याख्यानावरण कहलाती है। जब इस कषाय का क्षयोपशम होता है तब मनुष्य सकल चारित्र को ग्रहण करता है, हिंसादि पाँच पापों का सर्वदेश त्याग कर देता है, परन्तु संज्वलन कषाय का तीव्रोदय होने से प्रमादयुक्त रहता है, इसलिए इसे प्रमत्तसंयत कहते हैं। चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रियों के विषय, निद्रा और स्नेह ये प्रमाद के पन्द्रह भेद हैं। इनमें कदाचित् मुनि की प्रवृत्ति होती है, इसलिए छठे गुणस्थानवर्ती मुनि को प्रमत्तसंयत कहा जाता है। यहाँ प्रमाद उतनी ही मात्रा में होता है जितनी मात्रा से वे अपने गृहीतचारित्र से पतित नहीं हो पाते। मुनिव्रत धारण करने पर सर्वप्रथम सप्तम गुणस्थान होता है। पश्चात् वहाँ से गिरकर जीव छठे गुणस्थान में आता है। छठे से चढ़कर इस तरह ये जीव छठे-सातवें गुणस्थान की भूमिका में हजारों बार चढ़ता तथा उतरता है। यह गुणस्थान तथा इसके आगे के गुणस्थान मनुष्यगति में ही होते हैं । द्रव्यवेद की अपेक्षा पुरुषवेदी के ही यह गुणस्थान होता है, परन्तु भाववेद की अपेक्षा तीनों वेद वाले के हो सकता है। इस गणस्थान में यदि आयुबन्ध का अवसर आता है तो नियम से देवायु का ही बन्ध होता है। देवायु को छोड़कर किसी अन्य आयु का बन्ध होने पर उस जीव के उस पर्याय में यह गुणस्थान ही नहीं होगा, ऐसा नियम है। सातवाँ : अप्रमत्त संयत गुणस्थान संयतो ह्यप्रमत्तः स्यात् पूर्ववत्प्राप्तसंयमः। प्रमाद-विरहावृत्तेर्वृत्तिमस्खलितां दधत्॥24॥ अर्थ–सातवें गुणस्थान का नाम अप्रमत्तसंयत है। छठे गुणस्थान की तरह यहाँ भी संयम तो पूर्ण होता ही है, परन्तु प्रमादजनक चौथे संज्वलन कषाय का उदय मन्द हो जाने से प्रमाद होना भी रुक जाता है, इसलिए चारित्र या संयम की वृत्ति निष्प्रमाद होने लगती है, अत एव इसे अप्रमत्तसंयमी कहते हैं। छठे गुणस्थान की अपेक्षा इस गुणस्थान में संज्वलन का उदय और भी मन्द हो जाता है, इसलिए यहाँ प्रमाद का अभाव हो जाता है। प्रमाद का अभाव हो जाने से यह अप्रमत्तसंयत कहलाता है। इस गुणस्थान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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