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________________ 46 :: तत्त्वार्थसार नाम गुणस्थान है। गुणस्थान चौदह हैं-1. मिथ्यात्व, 2. सासन अथवा सासादन, 3. मिश्र अथवा सम्यग्मिथ्यात्व, 4. असंयत, 5. देशसंयत, 6. प्रमत्तसंयत, 7. अप्रमत्तसंयत, 8. अपूर्वकरण, 9. अनिवृत्तिकरण, 10. सूक्ष्मकषाय, 11. उपशान्तकषाय, 12. क्षीणकषाय, 13. सयोगकेवली, और 14. अयोगकेवली। अब इनके लक्षण क्रम से कहते हैं। पहला : मिथ्यात्व गुणस्थान मिथ्यादृष्टि-र्भवेज्जीवो मिथ्यादर्शनकर्मणः। उदयेन पदार्थानामश्रद्धानं हि यत्कृतम्॥18॥ अर्थ-मिथ्यादर्शन एक कर्म है जिसके उदय होने से जीव का श्रद्धान मिथ्या तत्त्वों में हो जाता है और सत्य तत्त्वों की रुचि प्रकट नहीं होती। इस गुणस्थान को तथा गुणस्थानवी जीव को मिथ्यादृष्टि कहते हैं। शब्दार्थ यों है कि जिसकी दृष्टि (श्रद्धा) मिथ्या हो वह मिथ्यादृष्टि। दूसरा : सासादन गुणस्थान मिथ्यात्वस्योदयाभावे जीवोऽनन्तानुबन्धिनाम्। उदयेनास्तसम्यक्त्वः स्मृतः सासादनाभिधः ॥19॥ अर्थ-मिथ्यात्व का उदय नहीं होते हुए भी, अनन्तानुबन्धी कर्म का उदय हो जाए तो भी सम्यग्दर्शन नष्ट हो जाता है। इसी का नाम सासादन है। अनन्त संसार-परिभ्रमण के कारण सर्वाधिक कषाय को अनन्तानुबन्धी कहते हैं। मिथ्यात्व गुणस्थान में मोक्षोपयोगी शक्ति का प्रादुर्भाव नहीं होता, इसलिए यह सबसे निकृष्ट जीव का सूचक स्थान है। इससे ऊपर जब कुछ परिणामों की विशुद्धि होने से थोड़ा-सा आत्मज्ञान का श्रद्धान हो जाता है तब जीव को जो स्थान, पहला स्थान बदलकर, मोक्षोपयोगी प्राप्त होता है उसे चौथे स्थान पर रखा है। उससे नीचे गिरते समय जो कुछ मलिन परिणाम होते हैं उनके तीन विभाग हैं। परिणाम अत्यन्त मलिन हो गया हो तो प्रथम गुणस्थान हो जाता है। उस समय मिथ्यादर्शन व अनन्तानुबन्धी कषाय-इन दोनों का उदय हो जाता है। यदि केवल मिथ्यात्व का उदय न होकर अनन्तानुबन्धी का ही उदय हुआ हो तो परिणाम कुछ कम मलिन होंगे। उस स्थान को दूसरा गुणस्थान कहते हैं। तीसरा : मिश्र गुणस्थान सम्यग्मिथ्यात्वसंज्ञायाः प्रकृतेरुदयाद्भवेत्। मिश्रभावतया सम्यग्मिथ्यादृष्टिः शरीरवान्॥20॥ अर्थ-सम्यग्मिथ्यात्व नामक कर्म के उदय से जीव के परिणाम आधे समीचीन और आधे मिथ्या रूप मिश्र हो जाते हैं, इसलिए जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि बन जाता है। यही तीसरे गुणस्थान का स्वरूप है। दूसरे गुणस्थान ‘सासादन' में सम्यग्दर्शन कुछ भी नहीं रहता है, परन्तु तीसरे में आधे-अधूरे परिणाम विशुद्ध हो जाने से तीसरे गुणस्थान का स्थान दूसरे से ऊँचा माना गया है। न इसे पूरा मलिन ही कह सकते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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