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________________ द्वितीय अधिकार :: 45 अर्थ-1. सम्यक् मति, 2. श्रुत, 3. अवधि, 4. मन:पर्यय, 5. केवल तथा 6. कुमति, 7. कुश्रुत और 8. कुअवधि-ये मिलकर कुल आठ ज्ञान हैं। ज्ञानों का विशेष स्वरूप पीठिका-प्रकरण में दे चुके हैं। दर्शन के चार भेद हैं। चाक्षुष ज्ञान के प्रथम होनेवाला चाक्षुष दर्शन (पहला), इतर इन्द्रियों द्वारा होने वाले ज्ञान के पूर्व होने वाला अचाक्षुष दर्शन (दूसरा), अवधिज्ञान के प्रथम आत्म द्वारा होनेवाला अवधिदर्शन (तीसरा), केवलज्ञानी जीवों को संसारी जीवों की तरह चौथा केवलदर्शन व ज्ञान आगे पीछे नहीं होते, एक साथ ही होते हैं। तो भी दोनों ज्ञानदर्शनों का सद्भाव वहाँ आवरण के भेदवश तथा विषयविभागादि कारणवश कहा जाता है। दर्शनोत्तर अवग्रह तथा ईहाज्ञानपर्यन्त मतिज्ञान हो जाने पर मनःपर्यय ज्ञान का स्वरूप प्रकट होता है। इसलिए मन:पर्यय ज्ञान प्रथम ही सीधा नहीं होता, अतएव अवधिदर्शन की तरह मनःपर्यय नाम का दर्शन होना नहीं माना गया है। श्रुतज्ञान भी मतिज्ञानपूर्वक होता है, इसलिए श्रुतदर्शन भी कोई अलग नहीं है। एक मतिज्ञान के प्रथम होनेवाले दर्शन के चाक्षुष व अचाक्षुष ऐसे दो भेद किये हैं। मन:पर्यय व श्रुत के पूर्व होनेवाले दर्शन न मानकर केवलज्ञान व अवधिज्ञान के सम्बन्धी केवल व अवधि नाम वाले दो दर्शन माने गये हैं। इस प्रकार पाँच अथवा आठ ज्ञानों के साथ जुड़नेवाले दर्शन चार हैं, मिलकर उपयोग के कुल बारह भेद होते हैं। जीवों के भेद संसारिणश्च मुक्ताश्च जीवास्तु द्विविधाः स्मृताः। लक्षणं तत्र मुक्तानामुत्तरत्र प्रचक्ष्यते॥14॥ साम्प्रतं तु प्ररूप्यन्ते जीवाः संसारवर्तिनः। जीवस्थान-गुणस्थान-मार्गणादिषु तत्त्वतः॥15॥ अर्थ-जीव दो प्रकार के माने गये हैं—संसारी और मुक्त। मुक्तों का लक्षण तो ग्रन्थ के अन्त में कहेंगे, परन्तु संसारी जीवों का लक्षण अभी कहते हैं। कर्म व शरीर से युक्त रहनेवाले जीवों का नाम संसारी है। वास्तव इनका खुलासा जीवस्थान, गुणस्थान, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा व मार्गणाओं के द्वारा होगा, इसलिए क्रम से जीवस्थानादिकों का सामान्य स्वरूप व भेद कहते हैं। गुणस्थानों के नाम मिथ्यादृक् सासनो मिश्रोऽसंयतो देशसंयतः। प्रमत्त इतरोऽपूर्वा निवृत्तिकरणौ तथा॥16॥ सूक्ष्मोपशान्त-संक्षीणकषाया योग्ययोगिनौ। गुणस्थानविकल्पाः स्युरिति सर्वे चतुर्दश ॥17॥ अर्थ-'गुणस्थान' शब्द का अर्थ पहले दे चुके हैं कि मोक्षसाधक गुणों के उत्तरोत्तर प्रकर्ष का 1. 'दंसणपुव्वं णाणं छदमठ्ठाणं ण दोण्णि उवउग्गा। जुगवं जम्हा केवलिणाहे जुगवं तु ते दोवि।' द्र.सं., गा. 44 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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