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(६६) ॥ गु०॥ एह बत्रीशी मर्म ॥ स०॥३॥ दंसण नाण चरण तणा ॥ गु०॥ तप आचारे युक्त ।। स०॥ क्रोधा दिक |चहुं परिहरे ॥ गुण ॥ पंचेंजिय त्याग प्रयुक्त ॥ स ॥४॥ नवविध तत्वनी देशना ॥ गु०॥ नव कल्पी उग्र विहार ॥ स॥ नव नीयाणां परहस्यां। गु० ॥ नव वाडे व्रत धार ॥स ॥५॥आतम बाजोठ उपरें ॥ गुण ॥ समकेत साथियो पूर ॥ स ।। मूल उ त्तरगुण गहूअली । गु०॥ उपशम अदत नूर ॥ स० ॥६॥ कोकिल कंठे कामिनी ॥ गुण ॥ सोहव गावे गीत ॥ स०॥ माणक मोती लूतां ॥ गु० ॥ श्री जि नशासन रीत ॥ स०॥ ॥ इति ॥५४॥ ॥ अथ समवसरणनी गहूंली पंचावनमी॥
॥श्रावण वरसे रे स्वामी ॥ ए देशी॥ ॥सांजल सजनी रे महारी, समवसरणनी शोना सारी॥प्रथम गढ रूपानो राजे, सोवन कोसीसां तस बाजे ॥ सांजल ॥१॥ बीजो कंचननो गढ निरखो, रत्न कोसीसा जो जो हरखो॥ त्रीजो रत्न तणो ग ढ सोहे, मणि कोसीसें मनडुं मोहे ॥ सांग ॥२॥ जुगतें सुरवर रे जडीयां, वीश हजार जेहनां पावडी यां ॥ मध्ये रत्न पीठ मनोहार, जडित सिंहासन
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