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________________ (१७) मुख कीरिया रे किजें, देव गुरु नक्ति चित्तमां धरी जें ॥ एम कहे रामनो रे शिष्य, उली उजवजो ज ग दीश ॥ नविण ॥ ५ ॥ इति समाप्त ॥ ॥अथ श्री आनंदघनजीकृत पदो॥ राग आशावरी॥अवधू सो जोगी गुरु मेरा, उस पदका करे रे निवेमा ॥ अवधू० ॥ टेक ॥ तरुवर एक मूल बिन बाया, बिन फूलें फल लागां ॥ शाखा पत्र नहीं कबु उनकू, अमृत गगनें लागां ॥०॥१॥ तरुवर एक पंडि दोउ बेठे, एक गुरु एक चेला ॥ चेलेने जुग चुण चुण खाया, गुरु निरंतर खेला ॥ ॥अ० ॥२॥ गगण मंगलमें अधबिच कूवा, उहां हे श्रमीका वासा ॥ सुगुरा होवे सो जर जर पीके, नगुरा जावे प्यासा॥ ॥३॥गगन मंगलमें गउयां बिहानी, धरती दूध जमाया ॥ माखन था सो विरला पाया, गस जगत् नरमाया ॥ अ॥४॥ थम बिन पत्र पत्र बिन तुंबा, बिन जिन्या गुण गाया॥गावन वालेका रूप न रेखा, सुगुरु सोही बताया ॥१०॥ ॥५॥ आतम अनुनव बिन नहीं जाने, अंतर ज्योति जगावे ॥ घट अंतर परखे सोही मूरत, आनंदघन पद पावे ॥ १० ॥६॥इति समाप्त ॥ . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003687
Book TitleStavanavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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