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________________ (६) ट नजीक में दुश् रहुँ, मेरो जीव रमाऊं ॥ मेरे ॥ ॥२॥ अंतरजामी एक तुं, अंतरिक गुण गाऊं ॥श्रा नंद कहे अनुपासजी, कबु उर न चाहुँ ॥मेरे ॥३॥ ६ देव निरंजन नवजय जंजन, तत्त्वज्ञानका द रीया रे ॥मति श्रुत अवधि ने मनःपर्यव, केवल ज्ञा ने जरीया रे ॥ देव ॥१॥ काम क्रोध मोह मछर मारण, अष्ट करमकू हणीया रे ॥ चारो नारी दूर निवारी, पंचमी सुंदरी वरीया रे ॥ देव ॥२॥ दरिस ण झान एकरस जाकू, कीरोदधि ज्युं नरीया रे॥ रूपचंद प्रनु नामकी नावा, जो बेग सो तरीया रे॥ देव० ॥३॥ ७ में परदेशी पूरको, प्रजुदरसणकू आयो ॥ ला ख चोरासी देश नम्यो, तोरो दरिसण पायो ॥में॥ ॥१॥ सूदम बादर निगोदमां, वनस्पती बनायो । पुढवी आज तेज वाऊमां, काल अनंत गमायो॥में॥ ॥२॥ वर्ग नरक तिर्यंचमां, केता जन्म गमायो॥ मनुष्य अनारजमें जम्यो, तिहां नहिं दरिसण पायो॥ में ॥३॥ तेरो मेरे दरिसण अब जयो, पूर्ण पुण्य पसायो ॥ रूपचंद कहे जाग्य खुले, नीरंजन गुण गायो । में ॥४॥ इति ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003687
Book TitleStavanavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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