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ता जियपै मरणो जलो, सुख नहिं होत समर्थ. ए७ नारी सुनारी तो मिलही, पूर्व पुण्य जो होश ऐसो विरलो जगत्में, जन देखीजें को. एए
सोरा कपट कृपानी कूर, कूप पापकी जाणियें; रहियें इनथें दूर, तब सुख सहजें पाश्य. १००
सवैयो. समुळे नहि बात करै बहुघात, रचै व्यतिपांत कुल क्रमसों, धरे मुख हेज हिये घन पेज, हसैहि सहै ज यही भ्रमसों, कहै कविचंद जुचंद मुखि सुवरै हिनचंद हिके श्रमसों, रहियें जिढुंदर जामेंवहुकूर तिहानिकि प्रीति, मिले ब्रमसों.
१०१ ॥ दोहा ॥ मुह बोले मीठी जुगति, फूठी चित्तकी रीति धीठी अन श्ठी मती, दीठी मौनहि प्रीति. १०५ वरजी रहै न सिख सुने, हटकी मानत नाहिः । आंखी माखी एक सी, सब काहू पै जांहि. १०३
॥कवित्त ॥ प्रीतकी न गीतकी न रीतकी कवीतकी न, मित्तकी न चित्तकी न नैस ऐसी मोथरा;
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