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________________ ( ११५ ) ॥ गयो शुन जाण ॥ सो० ॥ १७ ॥ गुणसागर थयो के वली रे, सांजली पृथिवीचंद | पोते केवल पामियो रे, सेव करे सुर इंद ॥ सो० ॥ १८ ॥ एम अनेक में उ या रे, मूक्या शिवपुर वास ॥ समयसुंदर प्रभु वीर जी रे, मुऊने प्रथम प्रकाश ॥ सो० ॥ १७ ॥ ॥ दोहा ॥ वीर कहे तुमे सांजलो, दान शियल तप नाव || निंदा बेति पापिणी, धर्म कर्म प्रस्ताव ॥१॥ पर निंदा करतां थकां पापे पिंक जराय ॥ वेढ राढ वाघे घणी दुर्गति प्राणी जाय ||२|| निंदक सरिखो पापियो, मूंडो कोइन दीठ ॥ वलि चंडाल समो कह्यो, निंदक मूख यदि ॥ ३ ॥ श्राप प्रशंसा श्रापणी, करतो इंद नींद ॥ लघुता पामे लोकमां, नासे निजगुण वृंद ॥ ४ ॥ को कहेनी म करो तुमे, निंदा ने हं कार || आप आपणे गमे रहो, सहुको जलो सं सार ॥ ५ ॥ तो पण अधिको नाव बे, एकाकी समर ॥ दान शियल तप त्रणे जलां, पण जाव विना कय ॥ ६ ॥ यंजन यांखे श्रांतां, अधिको आ णी रेख ॥ रजमांही तज काढतां, अधिको जाव विशे ष ॥७॥ जगवंत व अंजण जणी, चारे सरिख गणंत ॥ चारे करी मुख श्रापणां, चनविध धर्म जयंत ॥ ८ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003687
Book TitleStavanavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages162
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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