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(१५) हर ताम ॥ श्रावी एकांते गहनवनांतरें जी, वडतले ग्रह्यो विश्राम ॥ क० ॥ १३॥ गुहड विहंग रयणी जर तरुशिरें जी, सहित बालक परिवार ॥ वीट नि चय देखीने बाचडां जी, गुण पूजे तेणीवार ॥ क०॥ ॥१४॥ कुष्ट शमे ते विट प्रजावथीजी, पंखीपति कहे एम ॥ धनवतीये गुण जाणी संग्रही जी, विट जणी धरी प्रेम क॥१५॥ तिहांथी आवी को पुरवरे जी, कीधो पुरुषनो वेश ॥ टाले कुष्ट ते वीट प्रयोगथी जी, यश थयो देश विदेश ॥ क॥ १६ ॥ मोटा म होल बनाव्या मोजमां जी, चाहे बाल गोपाल ॥ मोहन विजयें ए जणी साठमी जी, श्रोता सांजलो थ उजमाल ॥ कम् ॥ १७ ॥ सर्व गाथा.
॥दोहा॥ एहवे धनवती वल्क्षहो, श्राव्यो निजपुर जाम ॥ पण मंदिरमां अंगना, तेणे नवि नीरखी ठगम ॥१॥ प्रीज्यो मानव मूखथकी, दयितानो अधिकार ॥ श्र ति कांखो हू थको, पहोतो मित्र छार ॥२॥ दी गे कुष्टी मित्रने, सती कलंक प्रनाव ॥ पुण्यपाल समज्यो हिये, कुटिल सुहृदनो दाव ॥३॥ एहवे पुरमांहे कयु, वैद्य विदेशे एक ॥ टाले कुष्ट उपाय
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