________________
(१७४) उच्च विवेकन, काया वली उबोल ॥ एम शिशिर निर्वाहयुं, करशुं रुचि कबोल ॥१॥ पूर्वढाल ॥ वली तेमज वसंतऋतु आवे, तव किसलय तेम तरु नावे॥ वागे चंग मृदंग सुरागें, वली टोली गावे फागें ॥१५॥ गंटे केसर नरी पीचकारी, तेम लाल गुलाल नरना री॥करे नाटक बत्रीश बरू, ते तो मुनिवेषे नविकी ध ॥१६॥दोहा॥ तप नवकिसलय तरु थयो,आवश्यक वाजीत्र॥ अध्ययनादिक फागगति, केसर किया वि चित्र ॥ १७ ॥ मार्दव लाल गुलाल बहु, परिसह ना टक कीध ॥ तुवसंतमांहे अहो, मुनिने ए अनि षिक ॥ १७ ॥ पूर्व ढाल ॥ ऋतु ग्रीष्म तपन तपे जोर, तेम लूक वहे चिहुं उर ॥ रस करीये घोली रसीलो, सुणीये कंश पिकवचन रसाल ॥ १५ ॥ तेम करे विलेपन चंदननां, ते शीतल पवन विजनना ॥ साकर जल नेली पीजे, एम ग्रीष्मनो लाहो लीजें। ॥२०॥ दोहा ॥ क्रोधातप कृश खंतिथी, खूक लो ननी जेह ॥ श्रादरशुं निःस्पृहता, वसशुं संयमगेह॥ ॥१॥अनुजवरस सहकार रस, कोकिल जनवर वाणी ॥ चंदन सत्य विलेपनां, उपशम व्यंजन जा णी ॥ २५ ॥ गुरुवाणा साकर विनय, नीरतणुं नित्य
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org